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वैदिक वाङ्गमय : ऐतिहासिक दृष्टि एवं व्याख्या का संकट / 159
वाथलिंक, ग्रासमान और मायरहौफर का कोश के क्षेत्र में कार्य एवं मैक्समूलर, लुडविग, गैल्डनर, ग्रिफिथ एवं विल्सन के अनुवाद एवं वाक्यार्थ के क्षेत्र में कार्य । इसके अतिरिक्त महामहोपाध्याय मधुसूदन ओझा एवं मोतीलाल शास्त्री ने वेदों की नयी वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत की है, जिसके अनुसार वेद की प्रत्येक शाखा में विज्ञान, स्तुति, इतिहास ये तीन मुख्य विषय हैं। वेद पदार्थ का निवर्चन विद्यते इति वेद: वेत्ति इति वेद, विन्दति इति वेद: तीन प्रकार से किया जा सकता है, जो विद् धातु से निष्पन्न होने के कारण सत्तार्थक विद्यते अर्थात् सत्ता-भाव, ज्ञानार्थक वेत्ति अर्थात् विज्ञानभाव तथा लाभार्थक विन्दति अर्थात् रसभाव का द्योतक है और इन तीनों की समष्टि वेद है। इस तरह भाष्यकारों, व्याख्याकारों ने अनेकधा वेद को देखा है।
ऐतिहासिक व्याख्या के प्रकरण में वैदिक ऋषियों अथवा भारतीय मनीषियों की मूल ऐतिहासिक दृष्टि को समझने की आवश्यकता है। कारण, वैदिक अथवा प्राचीन भारतीय रचनाकार आलोचनात्मक बुद्धि से समन्वित अतीत के तथ्यों में रुचि रखने वाले वस्तुनिष्ठ इतिहास लेखक नहीं हैं। उनके लिये ऐतिहासिक प्रक्रिया का वास्तविक अर्थ सभी सांस्कृतिक प्रकरणों को अर्थ के एक विकासशील सन्दर्भ के प्रकरण के रूप में प्रतिष्ठित होने में अथवा आत्मबोध की गवेषणा के रूप में लिये जाने में है ।" अतः धर्म का साक्षात्कार करने वाले ऋषियों ने मानव इतिहास का मूल शक्ति अथवा सम्पत्ति की उपलब्धि अथवा अनुपलब्धि में नहीं देखा उन्हें वह आत्मोत्कर्ष तथा आध्यात्मिक अनुभूतियों में दिखायी पड़ा लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाया जाना चाहिए कि उनमें ऐतिहासिक बुद्धि का अभाव था वस्तुतः उनके मन में इतिहास की एक अलग धारणा थी। उनकी दृष्टि में यह सारी सृष्टि कवि का काव्य है। फलतः जब भी किसी प्रमुख परम्परा का संकलन किया गया उसके प्रतिपादकों के विषय में ऐतिहासिक और अनैतिहासिक तथ्य को पृथक् नहीं किया गया। यह परम्परा अनुश्रुत इतिहास के रूप में कल्पित रामायण, महाभारत तथा पुराणों में ही नहीं बल्कि बाण तथा कल्हण की ऐतिहासिक प्रकृति की साहित्यिक रचना हर्षचरित और विशेषतया राजतरंगिणी तक में परिलक्षित होती है, जहाँ कवित्व इतिहासकार पर भारी दिखायी पड़ता है।
इस प्रकार वैदिक ऋषियों को अतीत तथा उसकी स्मृति की सुरक्षा काव्यात्मक मूल्यों के अधीन रखने में अधिक सुरक्षित प्रतीत होती है। इतिहास उनके लिए ज्ञान की एक शाखा थी, पाँचवा वेद था। यही कारण है कि आर्षइतिहास का सारा बोध ही एक दिव्य ऋत-चक्र का अंग बनकर भारतीय इतिहास में उतारा जाता है और इस प्रकार भारतीय इतिहासकार कवि भी है और दार्शनिक भी उसकी दृष्टि में जो पूर्वघटित घटनाओं के वर्णन द्वारा धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष की शिक्षा दे, वह इतिहास है। अतएव केवल घटना का ब्यौरा ही नहीं उसके माध्यम से पुरुषार्थ का उपदेश देना भी इतिहास का लक्ष्य है नर के भीतर नरोत्तमता की स्थापना के प्रयास बहुत बाद तक दिखायी पड़ते है
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नाथ राम नहिं नर भूपाला। भुवनेश्वर कालहुँ करि काला ।
स्पष्ट है कि ऐसी इतिहास दृष्टि एक सर्जनात्मक इतिहास का संवाहक होगी न कि आधुनिक ढंग की वैज्ञानिक रिपोर्ट, जिसे हम इसमें ढूँढने का प्रयत्न करें।
ऐतिहासिक व्याख्या की दृष्टि से वैदिक वाङ्गमय पर विचार करें तो वैदिक ऋषियों की मूल दृष्टि और आधुनिक इतिहासकारों की दृष्टि पर तुलनात्मक विचार आवश्यक है। एक का केन्द्र राजनीति होगी तो दूसरे का धर्म । इस दृष्टि से एक का अभीष्ट अपने भौतिक मूल्यों को प्रचार का साधन बनना है तो दूसरे का लक्ष्य पुरुषार्थवाद का उपदेश ।
यदि दोनों से यह प्रश्न करें कि इतिहास चक्र की संचालिका शक्ति क्या है? तो एक का उत्तर होगा आर्थिक शक्तियाँ जबकि दूसरी अधिक गहरे उतर कर प्रश्न करेगी कि सृष्टि बनी ही क्यों? आधुनिक दृष्टि के पोषक