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परम्परा एवं आधुनिकता बनाम इतिहास बोध : भारतीय संदर्भ / 153
आधुनिक जीवन की खोजों ने प्राचीन अथवा पुरातन की व्याख्या के नए सूत्र खोज निकाले ऐतिहासिक अध्ययन में नई विधाओं का प्रवेश हुआ। 'Cognitive Archaeology 2, एवं ‘Post Processual Archaeology, एवं Ethno Archaeology ने अतीत के धर्म, रीति रिवाजों, विश्वासों और परम्पराओं की व्याख्या के प्रयास आरम्भ कर दिए और इतिहास लेखन भी परम्परागत लेखन से बाहर निकला। यूरोप में 17 वीं शती तक आते आते तार्किक तरीके से इतिहास में कई सिद्धान्तों को स्थान दिया और यदि "प्रगति के सिद्वान्त ने मानव समाज के अतीत में प्रगति ढूँढ़ने का प्रयास किया तो वहीं भौतिकवादी व्याख्याओं ने अतीत के समाज को कुंद और स्थिर बताते हुए पुरातन परम्पराओं पर प्रहार किए।
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भारत का इतिहास लेखन इससे अछूता नहीं रहा। विशेषकर पाश्चात्य इतिहासकारों ने भारतीय परम्पराओं को न समझते हुए आरोप-प्रत्यारोप करते हुए भारतीय अतीत एवं परम्पराओं की धज्जियाँ उड़ा दीं। इस का आरम्भ एक साजिश के तहत आरम्भ किया गया और भारतीय समाज को बदलने के प्रयास में प्रशासन में भी परिवर्तन किए गए। वहीं ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रशासनिक कर्मचारियों के लेखन ने भारतीय परम्पराओं को विश्व के सामने ऐसे प्रस्तुत करना आरम्भ किया, जिससे कि भारतीय समाज को प्रशासनिक तरीके से बदलने के उनके प्रयास पर प्रश्न न उठे जेम्स मिल की हिस्ट्री एल्फिस्टन की हिस्ट्री ऑफ हिन्दू एण्ड मुहम्मडन इण्डिया' इसी परम्परा के इतिहास लेखन हुए। हेनरी मेन, विलियम विल्सन हण्टर ने तो भारतीय अस्मिता पर प्रश्न उठा डाले । किन्तु धीरे धीरे ब्रिटिश लेखनों में भी परिवर्तन आए और उन्होंने सहानुभूति पूर्वक भारत की परम्पराओं का अध्ययन करने का प्रयास किया । Orientalist (प्राच्यवाद) अथवा Indologist (भारतशास्त्री) कहलाने वाले इतिहासकारों ने भारतीय परम्पराओं को रुचिपूर्वक, सहानुभूतिपूर्वक पढ़ना और प्रस्तुत करना आरम्भ किया। साथ ही साथ समानान्तर रूप से समाजशास्त्रीय ऑगस्त कान्त (Augustus Comte) के अनुयायियों ने नृत्तत्व विज्ञान (Anthropology ) एवं समाज शास्त्र (Sociology) अनुशासन के झण्डे तले प्राचीन समाज को खंगालना आरम्भ किया, पर इतना अवश्य था, कि उन्हें किसी समाज विशेष से न तो लगाव था न दुराग्रह, किन्तु आधुनिक सामाजिक परम्पराओं को प्राचीन में आरोपित अवश्य करने के प्रयास में पुनः परम्पराओं की समझ में दुविधा बनी ही रही। क्योंकि यूरोप में जहां Old Saxon Chronicles अथवा Old Testaments को साक्ष्य मानते हुए अतीत की व्याख्याएँ करना उचित माना गया, वहीं भारतीय परम्परा में 'पुराण" को कपोल-कथा और काल्पनिक ठहराया गया।
भारतीय इतिहासकार भी इस दुविधा पूर्ण स्थिति में आगे आए। उन्हें एक ओर तो विदेशी इतिहासकारों का जवाब देना था और दूसरी ओर इस प्रतिक्रिया ने उन्हें वास्तविक रूप से परम्पराओं के विश्लेषण का अवसर दिया । समानान्तर एक लेखन मार्क्स के वामपंथ का अनुकरण करने वाले भारतीय इतिहासकारों का भी रहा, जिसने निरन्तर भारतीय समाज, संस्कृति, सामाजिक सत्य, धर्म आदि पर प्रश्न खड़े किए। भारतीय समाज के “Unchanging nature " की बात की। इसलिए आवश्यक है कि इस अवधारणा को समझा जाए कि "परम्परा और आधुनिकता" का अर्थ क्या है? यहां भी विडम्बना यह है कि इसे भी पाश्चात्य प्रभाव में पढ़ा जाता रहा है। आवश्यकता है इसे 'traditionalism * ( परम्परावाद) और modernism (आधुनिकवाद) के अर्थ में न देखकर, एक ऐतिहासिक प्रक्रिया के रूप में देखा जाए। परम्परा क्या है और उसका निर्वाह आवश्यक था अथवा है कि नहीं, इसका निर्णय भारतीय परिप्रेक्ष्य में किया जाए। इस निरंतर प्रक्रिया को भारतीय सामाजिक / धार्मिक/ दार्शनिक परिप्रेक्ष्य में समझा जाए। क्योंकि 'Modernism' की अवधारणा ने केवल यूरोप में ही जन्म नहीं लिया था । हर युग, हर समाज के कुछ मूल्य होते हैं, जो उसे पिछले युग की तुलना में आधुनिक ठहराते हैं, इसलिए भारत का 'Modernism' भारतीय परम्परा में ही पढ़ा जाए।'