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10. रवीन्द्रनाथ टैगोर का गोरा घर और बाहर 11. दोस्तॉवस्की के उपन्यास इन पुस्तकों ने मेरे मन में इस प्रकार की जिज्ञासायें पैदा की : 1. क्या ईश्वर का अस्तित्व है? 2. क्या धर्म सत्य के ज्ञान पर आधारित है या कि वह धोखा है? 3. क्या गणित के पूर्वसिद्ध नियमों के अनुसार विश्व की रचना हुई है? 4. धर्म और विज्ञान की इतिहास में क्या भूमिका है? 5. क्या नैतिक आदर्श सनातन और ज्ञानमूलक हैं अथवा ये संस्कारजन्य और ऐतिहासिक है?
1938 में मैंने मेरठ कॉलेज से इण्टरमीडिएट में प्रवेश लिया। दो वर्षों तक पाठय विषयों के अतिरिक्त मैंने संस्कृत का पहले से चला आ रहा पारम्परिक शैली से अपना अध्ययन अब पंडित रघुवीरदत्त शास्त्री के अध्यापन में आगे बढ़ाते हुए सम्पूर्ण कौमुदी और बृहत्वयी का अध्ययन किया। पश्चिमी साहित्य का विस्तृत अवगाहन किया और रूसी और अंग्रेजी उपन्यास, स्विफ्ट की रचनाओं एवं इब्सन और बनार्ड शॉ के नाटकों ने मेरी मानव-नियति और सामाजिक व्यवस्था के प्रति जिज्ञासा को गहरा किया।
1940 में मैंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय उस समय भारत के उत्कृष्टतम विश्वविद्यालयों में माना जाता था। अनेक विषयों में जिन प्रसिद्ध व्यक्तियों के नाम पहले पढ़े-सुने थे वे वहाँ साकार रूप में विद्यमान थे। लैस्की का निबन्ध आइडिया ऑफ यूनिवर्सिटी मुझे बहुत पसन्द आया। उसका यह कथन कि ज्ञान एक अखण्ड इकाई (Seamless garment) है जिसमें आन्तरिक विभाजन कल्पित होते हैं, मेरे लिए एक ध्रुव तारे के समान मार्गदर्शक बन गया। प्रो. क्षेत्रेशचन्द्र चट्टोपाध्याय, प्रो. रामप्रसाद त्रिपाठी, प्रो. बेनी प्रसाद, प्रो. सतीश चन्द्र देव और प्रो. जे. के. मेहता से मैने अखण्ड ज्ञान के इसी अनुसन्धान की प्रेरणा पायी। जिसमें विश्वविद्यालयीय विभागों का विभाजन अप्रासंगिक था। पुरानी जिज्ञासाओं के साथ कुछ नयी जिज्ञासाएँ भी इस अन्तराल से जुड़ गयीं :
1. क्या इतिहास के अपने नियम हैं?
2. स्पेग्लर सही है कि फिशर? हेगल या मार्क्स? समाज और राज्य का आधार धर्म है अथवा अर्थ? बोसांके सही है कि हॉब-हौस? ब्रैडले या लैस्की?
3. दर्शन का आधार आत्मविद्या है या प्रकृतिविज्ञान या विशुद्ध तार्किक उलझने और व्यवस्थाएँ? भारतीय दर्शन की मुख्यधारा और पश्चिम की नवोदित दार्शनिक धाराओं की विसंगति से ये प्रश्न महत्त्वपूर्ण प्रतीत होते थे।
4. साहित्य और कला के मूल्यों का क्या स्वरूप है? कहाँ तक वे विश्वजनीन हैं? भारतीय साहित्य और कला के पश्चिमी इतिहासकारों के फतवों से इस प्रकार की जिज्ञासा मन को व्यथित और उद्वेलित करती थी।
5. संस्कृति क्या किसी सनातन परम्परा या आध्यात्मिक सत्य की ऐतिहासिक अभिव्यक्ति है? अथवा आगन्तुक ऐतिहासिक कारणों से बनाया हुआ ढाँचा. जिसमें मानवीय बौद्धिक विवेक और नैसर्गिक प्रवृतियों का संघर्ष देखा जा सकता है?
1942 में बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण कर मैंने इतिहास विषय लेकर एम. ए. में प्रवेश किया। डॉ. ताराचन्द हमें पश्चिमी राजनीतिक तत्त्वचिन्तन का इतिहास पढ़ाते थे। वे राजनीतिक विचारधारा को दार्शनिक तत्वचिन्तन पर मूलत: आधारित बताते थे और महत्त्वपूर्ण राजनीतिक विचारकों के दार्शनिक विचारों पर व्याख्यान देते थे। मुझे यह बात बहुत आकर्षक लगी और इससे प्रोत्साहित होकर मैंने पश्चिमी दार्शनिकों के अनेक मूल ग्रन्थों का अध्ययन किया, जिनमें प्लेटो, अरस्तू, काण्ट,