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________________ 84 / Jijñāsā चंगा हो गुरूजीति वाक्यचतुरो हस्ते निजे तत्करं कृत्वा सूरिवरान्तिनाय सदनान्तर्वस्त्ररूद्धागंणे । तावच्छ्रीगुरवस्तु पादकमल नारोपयन्तस्तदा वस्माणामुपरीति भूमिपतिना पृष्टाः किमेनद्गुरौ । । जगद्गुरू पद्य 168 शहंशाह अकबर तो पूर्वश्रवण एवं दर्शनमात्र से आचार्य हीरविजय की दिव्य आध्यात्मिक शक्तियों का कायल हो चुका या अतः सूरिजी के निषेध करते ही समझ गया कि हो न हो, गलीचे के नीचे जीव होगे जिन्हें आचार्यश्री ने अपनी दिव्यदृष्टि से देख लिया है। इस भावना से ज्यों ही उसने गलीचे का कोना उठाया, नन्हीं चीटियों का एक जत्था उसे दीख गया। वह विस्मय में डूब गया कि पत्थर की फर्श पर ये चीटिंया आई कहां से? वह मन ही मन आचार्यश्री पर निछावर हो उठा। सम्राट ने सुवर्ण आसन मंगवाया आचार्यश्री के लिये। परन्तु सूरि जी ने पूर्ण अनिच्छा प्रकट की यह कह कर कि राजन! हम लोग किसी धातु का स्पर्श नहीं करते। यह कह कर उन्होंने नंगी फर्श पर ही अपना ऊर्णासन बिछाया और बैठ गये। बादशाह भी महामुनि के समक्ष ही गलीचे पर बैठ गया। अबुलफजल, थानसिंह तथा अन्यान्य अभ्यागत भी यथास्थान बैठ गये। बादशाह ने प्रेम एवं आदरपूर्वक आचार्यश्री से कुशल क्षेम पूछा अपनी ओर से दी गई यात्रा की तकलीफों के लिये बारबार माफी मांगी। तथापि सूरिमहाराज ने शहंशाह के आमंत्रण का सहर्ष समर्थन किया। अकबर जैन सन्तों की जीवनचर्या तथा शास्त्रनियमानुपालन से कनई अवगत नहीं था। फलतः यह यही समझ रहा था कि आचार्यश्री भी घोड़े, हाथी अथवा पालकी से आये होंगे। परन्तु अब आचार्यश्री से हुई बातचीत से यह जान कर कि वह विगत 6 महीने से पैदल यात्रा करते बादशाह से मिलने आ रहे हैं, गहन पश्चाताप में डूब गया। संतप्त मन से उसने कहा भी, इस वृद्धावस्था में तब आचार्य हीरविजय साठ वर्ष के थे, शहंशाह संभवतः 41-42 वर्ष का था आप मात्र मेरी आज्ञा का पालन करने के लिये इतनी दूर से, इतने दिनों से इतना कष्ट सहने पैदल आ रहे हैं? क्या मेरे सुबेदार शहाबुद्दीन ने आपके लिये वाहन का प्रबन्ध नहीं किया? भूपोऽप्युवाचोति न साहिबारव्यरवानेन युष्मभ्यमदायि किंचित् । तुरङ्गमस्यन्दनदन्तियानजाम्बूनदाघं दृढमुष्टिने । । -हीरसौभाग्यम् 13.286 आचार्यश्री से यह सुन कर कि 'सूबेदार ने तो सारा प्रबन्ध किया था परन्तु मैंने ही अपने धर्मानुपालन वश कोई सुविधा स्वीकार नहीं की' शहंशाह रोषभरे लहजे में थानसिंह से बोला- थानसिंह! मैं तो सूरिजी महाराज के यात्रानियमों से अनभिज्ञ था। परन्तु तू तो सब जानता था । तूने क्यों नहीं बताया ? यदि मुझे ज्ञात होता कि सूरि जी पैदल चल कर आयेगें तो मैं कभी उन्हें आने का कष्ट न देता, उनकी आत्म समाधि में विघ्नबाधा न डालता। स्वयं जाकर महाराज को दर्शन करता । शहंशाह के वास्तविक रोषप्रदर्शन से वातावरण अचानक बदल सा गया था। थानासिंह भी किंकर्तव्यविमूढ था। परन्तु अकबर तो महान अवसरत था। स्वभावतः विनोदी भी था । तुरन्त उसने रूख बदला और बोला हाँ, अब मुझे समझ में आया सोचा होगा कि मेरे बुलाने से तो महाराज आयेंगे नहीं शहंशाह के बुलाने से आयेगें तो मेरा और मेरे जातिभाइयों का परमकल्याण हो जायेगा। तेरा बनियापन मैं समझ गया। अपना मतलब सिद्ध करने के ही लिये तूने मुझे अज्ञान में रखा। यह वाक्य कह कर. अकबर के मुस्कराते ही सारी सभा हँसने लगी । वातावरण पुनः रोचक एवं सामान्य हो गया। शहंशाह ने अपने दूतों, मोद एवं कमाल से आचार्यश्री का यात्रावृत्त पूछा। दोनों ने बारी-बारी से निवेदन किया, हुजूर ! महात्मा जी 6 महीने से पैदल ही चले आ रहे हैं। अपने उपयोग सारा सामान यह स्वयं होते हैं, किसी और को देते नहीं, भिक्षा गांव से ले जाते हैं। वह जैसी भी जो भी मिलती है, बिना उसे स्वादिष्ट बनाये, वैसी ही खा लेते हैं, बस दिन में एक बार सदा नीचे जमीन पर ही सोते हैं। चाहे कोई इनकी पूजा करे या गाली दे, इनके लिये दोनों व्यवहार समान ही हैं। न कभी किसी को वर देते हैं. न ही शाप । 3
SR No.022812
Book TitleJignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVibha Upadhyaya and Others
PublisherUniversity of Rajasthan
Publication Year2011
Total Pages272
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size11 MB
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