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आदिकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियाँ सूरि संयम श्री विवाह वर्णनारास (३३ पद्य)। जिनप्रबोध सूरि चर्चरी (१६ गा.)। जिनप्रबोधसूरि बोलिका (१२ गा.)। सोलणु - चर्चरिका (३८ पद्य)। हेमभूषणगणि - युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि चर्चरी (सं. १३४१) (२५ पद्य)। अज्ञातकर्तृक रचनायें - जिनचन्द्रसूरि फागु (सं. १३४१), श्री जिणचंद सूरि चतुष्पदी (१० गा.), सप्तक्षत्री रास (सं. १३२७) ११९ पद्य, बारहव्रत चौपाई, स्तंभतीर्थ अजित स्तवन (२५ गा.), अनाथी कुलक (३६ कडी)। धना संधि (६१ गाथा), केसी गोयम संधि, अनाथी मुनि चौपाई (६३ गा.)। आनंद संधि, हेमतिलकसूरि संधि, युगवर गुरु स्तुति (गा. ६)। अंतरंगरास (६७ कडी), कर्मगति चौपाई। रत्नशेखररास (२६८ पद्य), मातृका चउपइ (६४ छन्द)।
आदिकालीन कवियों के इस संक्षिप्त विवरण को देखने पर हमारा ध्यान इस काल की विविध विधाओं की ओर खिंच जाता है जिनका प्रयोग इन कवियों ने किया है। इन काव्य रूप विधाओं में रासा, चउपइ, चर्चरी, फागु, रूपक, विवाहलउ, रेलुआ आदि विशेष उल्लेखनीय हैं।
रासा - रासा का सम्बन्ध रास, रासा, रासु, रासो आदि शब्दों से रहा है जो रासक शब्द के ही परिवर्तित और विकसित रूप हैं। रासक का सम्बन्ध नृत्य, छन्द अथवा काव्य विशेष से है। ये रास तालियों या डंडियों की लय एवं धूमर के साथ विशेष उत्सवों पर जैन मन्दिरों में खेले जाते थे। यह परम्परा अपभ्रंश से मरु गुर्जर में आई। विजयसेन सूरिकृत रेवंतगिरि रास (सं. १२८७) की पंक्ति “रंगिइ रमइ जे रासु' या प्रज्ञातिलक कृत "कच्छुली रास' की पंक्ति 'जिणहरि दंत सुणंत,