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प्राक्कथन
आज के वैज्ञानिक युग में भौतिकवादी दौड़-धूप करने के बावजूद व्यक्ति शान्त और सुखी नहीं है क्योंकि उसने आत्मस्वभाव में स्थित न रहकर वैभाविक क्षेत्र में विचरण करना शुरू कर दिया है। उसने अहं को शिर पर रखकर स्वयं को सबसे बड़ा विवेकी और खोजी समझ लिया है। इसी भूल और भ्रान्ति ने उसे आकुल-व्याकुल, व्यग्र तथा अशान्त बना दिया है। इसी से वह अपने मूल स्वभाव को भूलकर स्वयं में छिपे परमात्मा को बाहर खोज रहा है। तब वह मिले कैसे ? परमात्मपद की प्राप्ति तो संयम, तप, इन्द्रियनिग्रह, यम, नियम, विवेक आदि के माध्यम से ही हो सकती है। ऐसे साधन भी हर युग में होते रहें जो भीतर से जुड़कर अपने को बुनते रहें, गुनते रहें ।
भीतर की यह बुनावट किंवा खुलावट आत्म-साक्षात्कार की प्रक्रिया का परिणाम है। इसका आनन्द इन्द्रियातीत है। स्वाधीन और अव्याबाध है। भक्त और साधक कवियों ने इस अनुभूत आनन्द को नानाविध रूपों में अभिव्यक्त करने का प्रयत्न किया है। साहित्य में यह प्रवृत्ति 'रहस्यवाद' नाम से अभिहित की गयी है ।
सामान्यतः रहस्यवाद की सृष्टि के लिए जीव और ब्रह्म का भिन्न-भिन्न होना आवश्यक माना गया है। जीव ब्रह्म से मिलने के लिए न केवल आकुल-व्याकुल रहता है, प्रणय निवेदन करता है, वरन् नानाविध बाधाओं को जय करने में भी अपने पुरुषार्थ पराक्रम का