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________________ आदिकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियाँ 59 पउमचरिउ और रिटुणेमिचरिउ, धवल (१०-११ वीं शती) और यशःकीर्ति (१५ वीं शती) के हरिवंशपुराण, पुष्पदंत (१० वीं शती) के तिसद्विपुरिसगुणालंकार (महापुराण), जसहरचरिउ और णायकुमारचरिउ, धनपाल धक्कड़ (१० वीं शती) का भविसयत्तकहा, कनकामर (१० वीं शती) का करकण्ड चरिउ, धाहिल (१० वीं शती) का पउमसिरिचरिउ, हरिदेव का मयणपराजय, अब्दुल रहमान का संदेसरासक, रामसिंह का पाहुड़दोहा, देवसेन का सावयधम्मदोहा आदि सैकड़ों ग्रन्थ अपभ्रंश में लिखे गये हैं जिन्होंने हिन्दी के आदिकाल और मध्यकाल को प्रभावित किया है। उनकी सहज-सरल भाषा स्वाभाविक वर्णन और सांस्कृतिक धरातल पर व्याख्यायित दार्शनिक सिद्धान्तों ने हिन्दी जैन साहित्य की समग्र कृतियों पर अपनी अमिट छाप छोडी है। भाषिक परिवर्तन भी इन ग्रन्थों में सहजता पूर्वक देखा जा सकता है। हिन्दी के विकास की यह आद्य कडी है। इसलिए अपभ्रंश की कतिपय मुख्य विशेषताओं की ओर ध्यान देना आवश्यक है। अपभ्रंश भाषा का प्रारूप - अपभ्रंश जिसे आभीरोक्ति, भ्रष्ट और देशी भाषा कहा गया है, भाषा होने के कारण उसके बोली रूपों में वैविध्य होना स्वाभाविक था। प्राकृत सर्वस्वकार मार्कण्डेय ने उसके तीन प्रमुख रूपों का उल्लेख किया है - नागर, ब्राचड तथा उपनागर। डॉ. याकोबी ने उसे उत्तरी, पश्चिमी,पूर्वी तथा दक्षिणी के रूपों में विभाजित किया है। डॉ. तगारे ने इस विभाजन को तीन भेदों में ही समाहितकर निम्न प्रकार से वर्णन किया है १. पूर्वी अपभ्रंश - सरह तथा कण्ह के दोहाकोश और चर्यापदों की भाषा। इसे मागधी अपभ्रंश भी कहा जाता है। प. बंगला, उड़िया, भोजपुरी, मैथिली आदि भाषायें इसी से निकली हैं।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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