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संदर्भ अनुक्रमणिका १४०. वही, साध्य साधक द्वार, १५-१६, पृ. ३४२-३। १४१. बनारसी विलास, भाषासूक्त मुक्तावली, १४, पृ. २४। १४२. सद्गुरु मिलिया सुंछपिछानौ ऐसा ब्रह्म मैं पाती। सगुरा सूरा अमृत पीवे
निगुरा प्यारस जाती। मगन भया मेरा मन सुख में गोविन्द का गुणगाती। मीरा कहै इक आस आपकी औरां सूं सकुचाती।। सन्त वाणी संग्रह, भाग
२, पृ. ६९। १४३. अब मौहि सद्गुरु कहि समझायौ, तौ सौ प्रभू बड़े भागनि पायो। रूपचन्द नटु
विनवै तौही, अब दयाल पूरौदे मोही।। हिन्दी पद संग्रह, पृ. ४९। १४४. वही, पृ. १२७, तुलनार्थ देखिये। मन वचकाय जोग थिर करके त्यागो
विषय कषाइ। द्यानत स्वर्ग मोक्ष सुखदाई सतगुरु सीख बताई।। वही,
पृ.१३३। १४५. हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि, पृ. ११७।।
भाई कोई सतगुरु सत कहावै, नैनन अलख लखावै-कबीर; भक्ति काव्य में
रहस्यवाद, पृ. १४६। १४७. दरिया संगम साधु की, सहजै पलटै अंग। जैसे सं गमजीठ के कपड़ा होय
सुरंग। दरिया८, संत वाणी संग्रह, भाग १, पृ.१२९। १४८. सहजो संगत साध की काग हंस हो जाय। सहजोबाई, वही, पृ.१५८। १४९. कह रैदास मिलैं निजदास, जनम जनम के काटे पास-रैदास वानी,
पृ.३२। १५०. तज कुसंग सतसंग बैठ नित, हरि चर्चा गुण लीजौ - सन्तवाणी संग्रह, भाग
२, पृ.७७। १५१. जलचर थलचर नभचर नाना, जे जड चेतन जीव जहाना। मीत कीरति
गति भूति भलाई, जब जेहिं जतन जहां जेहिं पाई। सौ जानव सतसंग प्रभाऊ, लौकहुं वेद न आन उपाऊ। बिनु सतसंग विवेक न होई, राम कृपा बिनु सुलभ न सोई। सतसंगति मुद मंगलमूला, सोई फल सिधि सब साधन फूला। सठ सुधरहिं सतसंगति पाई, पारस परस कुधात सुहाई।
तुलसीदास-रामचरिमानस, बालकाण्ड २-५। १५२. तजौ मन हरि विमुखन को संग। जिनके संग कुमति उपजत है परत भजन में