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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना मिलती है । इसका कारण है कि सूर और तुलसी का साध्य प्रत्यक्ष और साकार रहा। मीरा का भी, परन्तु सगुण भक्तों में कान्ताभाव मीरा में ही देखा जाता है इसलिए प्रेम की दिवानी मीरा में जो मादकता है वह न तो सूर में है और न तुलसी में और न जैन कवियों में। यह अवश्य है कि जैन कवियों ने अपने परमात्मा की निर्गुण और सगुण दोनों रूपों की विरह वेदना को सहा है। एक यह बात भी है कि मध्यकालीन जैनेतर कवियों के समान हिन्दी जैन कवियों के बीच निर्गुण अथवा सगुण भक्ति शाखा की सीमा-रेखा नहीं खिंची। वे दोनों अवस्थाओं के पुजारी रहे हैं क्योंकि ये दोनों अवस्थायें एक ही आत्मा की मानी गई है। उन्हें ही जैन पारिभाषिक शब्दों में सिद्ध और अर्हन्त कहा गया है।
मीरा की तन्मयता और एकाकारता बनारसीदास और आनन्दघन में अच्छी तरह से देखी जाती है। रहस्य साधना के बाधक तत्त्वों में माया, मोह आदि को दोनों परम्पराओं ने समान रूप से स्वीकार किया है। साधक तत्त्वों में इन भक्तों से भक्ति तत्त्व की प्रधानता अधिक रही है। भक्ति के द्वारा ही उन्होंने अपने आराध्य को प्रत्यक्ष करने का प्रयत्न किया है। यही उनकी मुक्ति का साधन रहा है।
साधक की साधना का पथ सुगम बनाने और सुलभ कराने के सन्दर्भ में जैन एवं जैनेतर सभी सन्तों और भक्तों ने गुरु की महिमा का गान किया है। मीरा के हृदय में कृष्ण प्रेम की चिनगारी बचपन से ही विद्यमान थी। उसको प्रज्वलित करने का श्रेय उनके भावुक गुरु रेदास को है जो एक भावुक भक्त एवं सन्त थे। मीरा के गुरु रैदास के होने में कुछ समालोचक सन्देह व्यक्त करते हैं। जो भी हो, मीरा के कुछ पदों में जोगी का उल्लेख मिलता है जिसने मीरा के हृदय में प्रेम की चिनगारी बोई। जैन साधकों ने भी मीरा के समान गुरु (सद्गुरु) की महत्ता को