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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना
रामकुमार वर्मा आदि विद्वानों ने हिन्दी साहित्य के आदिकाल का प्रारम्भ वि.सं. ७ वीं शती से १४वीं शती तक स्वीकार किया है। दूसरी ओर रामचन्द्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, विश्वनाथप्रसाद मिश्र आदि सम्मान्य विद्वान् उसका प्रारंभ १०वीं शताब्दी से १४वीं शताब्दी तक मानते हैं। इन विद्वानों में कुछ विद्वान आदि कालीन अपभ्रंश भाषा में लिखे साहित्य को पुरानी हिन्दी का रूप मानते हैं और कुछ हिन्दी साहित्य के विकास में उनका उल्लेख करते हैं।
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आ. रामचन्द्र शुक्ल के समय अपभ्रंश और विशेष रूप से हिन्दी जैन साहित्य का प्रकाशन नहीं हुआ था। जो कुछ भी हिन्दी जैन ग्रंथ उपलब्ध थे उन्हीं के आधार पर उन्होंने समूचे हिन्दी जैन साहित्य को अपने हिन्दी साहित्य के इतिहास में नितान्त धार्मिक, साम्प्रदायिक और शुष्क ठहरा दिया। उन्हीं का अनुकरण करते हुए आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने लिखा है " जो हिन्दी के पाठकों को यह समझाते फिरते हैं कि उसकी भूमिका जैनों और बौद्धों की साम्प्रदायिक सर्जना में है वे स्वयं भ्रम में है और उन्हें भी इस इहलाभ से भ्रमित करना चाहते हैं। हिन्दी के शुद्ध साहित्य की भूमिका संस्कृत और प्राकृत की सर्जना में तो ढूंढी जा सकती है, पर अपभ्रंश की साम्प्रदायिक अर्चना में नहीं। अपभ्रंश के नैसर्गिक साहित्य - प्रवाह से भी उसका संबंध जोडा जा सकता है, पर जैनों के साम्प्रदायिक संवाह से नहीं । ”
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परन्तु आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी इस सिद्धान्त से सहमत नहीं। उनके अनुसार” धार्मिक साहित्य होने मात्र से कोई रचना साहित्यिक कोटि से अलग नहीं की जा सकती। यदि ऐसा समझा जाने