________________
398
हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना हैं। इसलिए वे अनादिकालीन अविद्या को सर्वप्रथम दूर करना चाहते हैं ताकि चेतना का अनुभव घट-घट में अभिव्यक्त हो सके।"द्यानतराय ने भी आत्मानुभव को अद्वैतावस्था की प्राप्ति और भववाधा दूर करने का उत्तम साधन माना है। स्व-पर विवेक तथा समता की प्राप्ति इसी से होती है।" बनारसीदास आदि कवियों ने भेदविज्ञान की बात कही है पर सन्तों ने से आत्मसाक्षात्कार की भाषा दी है - ‘प्राण परीचै छाण' ३१२ आपहुं आपहि जाने'।१३ भेदविज्ञान होने पर ही वृत्तियाँ अन्तर्मुखी हो जाती हैं - 'वस्तु विचारत ध्यावतै मन पावै विश्राम'।"दादू ने इसी को 'ब्रह्मदृष्टि परिचय भया तब दादू बैठा राखि' कहा और सुन्दरदास ने 'साक्षात्कार याही साधन करने होई, सुन्दर कहत द्वैत बुद्धि कू निवारिये' माना है। इससे स्पष्ट है कि भवमूलक रहस्यभावना में साधक की स्वानुभूति को सभी आध्यात्मिक सन्तों ने स्वीकार किया है।
भावमूलक रहस्यभावना का सम्बन्ध ऐसी साधना से है जिसका मूल उद्देश्य आध्यात्मिक चिरन्तन सत्य और तज्जन्य अनुभूति को प्राप्त करना रहा है। इसकी प्राप्ति के लिए साधक यम-नियमों का तो पालन करता ही है पर उसका प्रमुख साधन प्रेम या उपासना रहता है। उसी के माध्यम से वह परम पुरुष, प्रियतम, परमात्मा के साथ तादात्म्य स्थापित करता है और उससे भावात्मक ऐक्यानुभूति की क्षमता पैदा करता है। इस साधना में साधक के लिए गुरु का विशेष सहारा मिलता है जो उसकी प्रसुप्त प्रेम भावना को जाग्रत करता है। प्रेम अथवा रहस्य भावना जाग्रत हो जाने पर साधक दाम्पत्यमूलक विरह से संतप्त हो उठता है और फिर उसकी प्राप्ति के लिए वह विविध प्रकर की सहज योगसाधनाओं का अवलम्बन लेता है।