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रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियों का तुलनात्मक अध्ययन 395 निम्नलिखित उद्धरण से यह अवश्य लगता है कि उन्होंने प्रारंभ में किसी योग साधना का अवलम्बन लिया होगा। प्रेम साधना की ओर लग जाने पर उनको योग से विरक्ति हो जाना स्वाभाविक था -
तेरो मरम नहिं पायो रे जोगी। आसण मारि गुफा में बैठो ध्यान करी को लगाओ।। गल विच सैली हाथ हाजरियों अंग भभूत रमायो। मीरा के प्रभु हरि अविनासी भाग लिख्यो सौ ही पायो।।४
एक अन्य स्थान पर भी मीरा के ऐसे ही भाव मिलते हैं - 'जिन करताल पखावज बाजै अनहद की झनकार रे।८५
जैनधर्म में योग की एक लम्बी परम्परा है। पंचेन्द्रियों के निग्रह के साथ ही ‘अन्तर विजय' का विशेष महत्त्व है । उसे ही 'सत्यब्रह्म' का दर्शन माना गया है - ‘अन्तर विजय सूरतासांची, सत्यब्रह्म दर्शन निरवांची। ऐसा ही योगी अभयपद प्राप्त करता है - 'ऐसा योगी क्यों न अभयपद पावै, सो फेर न भव में आवै'। यही निर्विकल्प अवस्था है जिसे आत्मा की परमोच्च अवस्था कह सकते हैं। यहीं साधक समरस में रंग जाता है - 'समरस आवै रंगिया, अव्या देखई सोई।द्यानतराय ने उसे कबीर के समान, गूंगे का गुड़' माना है और दौलतराम ने 'शिवपुर की उगर समरस सौं भरी' कहा है।९१
__ आनन्दतिलक पर हठयोग का प्रभाव दिखाई देता है जो अन्य जैनाचार्यों पर नहीं है। 'अवधू' शब्द का प्रयोग भी उन्होंने अधिक किया है। पीताम्बर ने सहज समाधिको अगम और अकथ्य कहा है।९३ द्यानतराय ने 'अनहद' शब्द को भी सुना है। समरसता मध्यकाल की एक सामान्य विशेषता है अवश्य पर उसे नाथ सम्प्रदाय की देन नहीं कही जा सकती। उसे तो समान स्वर से सभी योगियों ने