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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना की सीमाओं से परे परम तत्त्व के रूप में मनुष्य की सहज स्वाभाविक अनुभूति मानते है जिसकी प्राप्ति एक सहज सन्तुलित जीवनचर्या द्वारा ही सम्भव है। इसके लिए साधक को किसी भी प्रकार का श्रम नहीं करना पड़ता, वरन् सारी साधना स्वयमेव सम्पन्न होती चतली है - सहजे होय सौ कोय'।२ सहज साधक अथक विश्वास और एकान्तनिष्ठा के साथ सहज साधना करता है और ‘सबद' को समझकर ही आत्म तत्त्व को प्राप्त करने में ही समर्थ होता है -
सन्तों देखत जग बौराना। सांच कहौं तो मारन धावै, झूठहिं जग पतियाना। नेमिदेखा धरमी देखा, प्रात करहिं असनाना। आतम मारि पषानहिं पूजहिं करहिं असनाना। आतम मारि पषानहिं पूजहिं उनिमह किछउ न ज्ञाना।। हिन्दू कहहिं मोहि राम पियारा, तुरुक कहहिं रहिमाना। आपस में दोउ लरि मुये, मरम न कोई जाना।। कहहि कबीर सुनहु हो सनतो, ई सम भरम भुलाना। केतिक कहौं कहा नहिं मानें, सहजै सहज समाना।।२७७
नानक ने सहज स्वभाव को स्वीकार कर उसे एक सहज हाट की कल्पना दी है जिसमें मन सहजभाव से स्थिर रहता है। दादू ने यम-नियमों के माध्यम से मन की द्वैतता दूर होने पर सम स्वभाव की प्राप्ति बताई है। यही समरसता है और इसी से पूर्ण ब्रह्म की प्राप्ति होती है। यम नियमों की साधना अन्य निर्गुणी सन्तों ने भी की है। सुन्दरदास और मूलकदास इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय हैं। सूर और तुलसी जैसे सगुण भक्तों में यह परम्परा दिखाई नहीं देती। मीरा के