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रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियों का तुलनात्मक अध्ययन
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मुनि रामसिंह ने भी आत्मा के इसी स्वरूप का वर्णन किया
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है। कबीर ने भी यही कहा है - 'वरन विवरजित हवै रह्या नां सौ स्याम न सेत । ' ११८५ कबीर का आत्मा अविनाशी, अविकार और निराकार है।" बनारसीदास ने भी आत्मा के इसी रूप को स्वीकार किया है.
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अविनासी अविकार परमरस धाम है, समाधान सर्वज्ञ सहज अभिराम है । सुद्ध बुद्ध अविरुद्ध अनादि अनन्त है । जगत शिरोमणि सिद्ध सदा जयवन्त है ।
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कबीर की दृष्टि में मिथ्यात्व और माया के नष्ट होने पर आत्मा और परमात्मा में कोई अंतर नहीं रह जाता
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जल में कुम्भ-कुम्भ में जल है, बाहिर भीतर पानी । फूटा कुंभ जल जलहि समाना, यहु जथ कथौ गियानी ।। ज्यूं बिंब हिं प्रतिबिम्ब समाना उदक कुम्भ विगरान T कहै कबीर जानि भ्रम भागा, वहि जीव समाना ।। बनारसीदास ने भी आत्मा और परमात्मा के रूप का ऐसा ही चित्रण किया है -
पिय मोरे घट, मै पियमाहिं । जलतरंग ज्यों द्विविधा नाहिं || पिय मो करता मैं करतूति । पिय ज्ञानी मैं ज्ञानविभूति ।। पिय सुखसागर मैं सुख सींव । पिय शिवमंदिर में शिवनींव || पिय ब्रह्मा मैं सरस्वति नाम । पिय माधव मो कमला नाम ।। पिय शंकर मैं देवि भवानि । पिय जिनवर मैं केवलवानि । । १८९
ने आत्म-परमात्म तत्त्व की अद्वैतता, सुन्दरदास
अखण्डता