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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना को भी वहां पृथक् माना गया है। सूफी साधकों ने आत्मा के परमात्मा तक पहुंचने में चार अवस्थाओं का वर्णन किया हैं - शरीयत (श्रुताभ्यास), तरीकत (नामस्मरण), हकीकत (आत्मज्ञान) और मारफत (परमात्मा में लीन)। जैनों ने आत्मा की इन्हीं अवस्थाओं को तीन अवस्थाओं में अन्तर्भूत कर दिया है - बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। आत्मा ही परमात्मा बन जाता है । इन सभी अवस्थाओं का वर्णन हम पीछे कर चुके हैं।
योगीन्दु मुनि ने आत्मा के स्वरूप पर विचार करते हुए लिखा है कि आत्मा न गौर वर्ण का है, न कृष्ण वर्ण का, न सूक्ष्म है, न स्थूल है, न ब्राह्मण है, न क्षत्रिय, न वैश्य है, न शूद्र, न पुरुष है, न स्त्री, न नपुंसक है, न तरुण-वृद्ध आदि। वह तो इन सभी सीमाओं से परे है। उसका वास्तविक स्वरूप तो शील, तप दर्शन, ज्ञान और चारित्र का समन्वित रूप है -
अप्पा गौरउ किण्हु णवि. अप्पा रत्तु ण होइ।। अप्पा सुहुसु वि थूणु ण वि, णाणिउ जाणे जोइ ।।८६।। अप्पा बंभणु वइसु ण वि, ण वि खत्तिउ ण वि सेसु । पुरिसुणाउंसउ इत्थ ण वि, ण णिउ मुणइ असेसु ।।८७।। अप्पा वन्दउ खवणु ण वि, अप्पा गुरउ ण होइ । अप्पा लिंगिउ एक्कु ण वि, ण णिउ जाणइ जोइ।।८८।। अप्पा पंडिउ मुक्खु ण वि, णवि ईसरु णवि णीसु । तरुणउ बूढ़उ बालु णवि, अण्णु वि कम्म विसेसु ।।९१ ।। अप्पा संजमु सीलु तउ, अप्पा सणु णाणु । अप्पा सासय मोक्ख पउ, जाणंतउ अप्पाणु ।।१३।।१८३