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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना दिया है। पंच परमेष्ठियों में सिद्ध को देव माना और शेष चारों को गुरु रूप स्वीकारा है। ये सभी दुरित हरन दुखदारिद दोन'' के कारण हैं। ५७ कबीरादि के समान कुशल लाभ ने शाश्वत सुख की उपलब्धि को गुरु का प्रसाद कहा है - "श्री गुरु पाय प्रसाद सदा सुख संपजइ रे'।१२८ रूपचन्द ने भी यही माना। बनारसीदास ने सद्गुरु के उपदेश को मेघ की उपमा दी है जो सब जीवों का हितकारी है। मिथ्यात्वी और अज्ञानी उसे ग्रहण नहीं करते पर सम्यग्दृष्टि जीव उसका आश्रय लेकर भव से पार हो जाते हैं। एक अन्यत्र स्थल पर बनारसीदास ने उसे “संसार सागर तरन तारन गुरु जहाज विशेखिये' कहा है।
मीरा ने 'सगुरा' और 'निगुरा' के महत्त्व को दृष्टि में रखते हुए कहा है कि सगुरा को अमृत की प्राप्ति होती है और निगुरा को सहज जल भी पिपासा की तृप्ति के लिए उपलब्ध नहीं होता। सद्गुरु के मिलन से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है।" रूपचन्द का कहना है कि सद्गुरु की प्राप्ति बड़े सौभाग्य से होती है इस लिए वे उसकी प्राप्ति के लिए अपने इष्ट से अभ्यर्थना करते हैं। द्यानतराय को “जो तजै वियै की आसा, द्यानत पावै सिववासा। यह सद्गुरु सीख बताई, काँहूं विरलै के जिय जाई' के रूप में अपने सद्गुरु से पथदर्शन मिला।
सन्तों ने गुरु की महिमा को दो प्रकार से व्यक्त किया है - सामान्य गुरु का महत्त्व और किसी विशिष्ट व्यक्ति का महत्त्व। कबीर
और नानक के साथ ही द्वितीय प्रकार को भी स्वीकार किया है। जैन सन्तों ने भी इन दोनों प्रकारों को अपनाया है। अर्हन्त आदि सद्गुरुओं का तो महत्त्वगान प्रायः सभी जैनाचार्यों ने किया है पर कुशल लाभ जैसे कुछ भक्तों ने अपने लौकिक गुरुओं की भी आराधना की है।