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________________ रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियों का तुलनात्मक अध्ययन 365 स्वर्ग मिलता तो भेड़ भी स्वर्ग पहुंचती। सुन्दरदास, जगजीवन , भीखा आदि सन्तों ने भी इन बाह्याचारों का खण्डन किया है। तुलसी ने भी कहा कि, जप, तप, तीर्थस्थान आदि क्रियायें रामभक्ति के बिना वैसी ही हैं जैसे हाथी को बांधने के लिए धूल की रस्सी बनाना।१०३ अनेक देवताओं की सेवा, श्मशान में तान्त्रिक साधना प्रयोग में शरीर त्याग आदि आचार अविद्याजन्य हैं। मध्यकालीन जैन सन्तों ने भी अपनी परम्परा के अनुसार बाह्याचारों का खण्डन किया है। जैनधर्म में बिना विशुद्धमन और ज्ञानपूर्वक किया गया आचार कर्मबन्ध का कारण माना गया है। भैया भगवतीदास ने कबीरादि सन्तों के स्वर से मिलाकर बाह्य क्रियाओं में व्यस्त साधुओं की तीखी आलोचना की है। वृक्ष के मूल में रहना, जटादि धारण करना, तीर्थस्नानादि करना ज्ञान के बिना बेकार हैं कोटि कोटि कष्ट सहे, कष्ट में शरीर दहे, धूमपान कियो पै न पायौ भेद तन को । वृक्षन के मूल रहे जटान में झूलि रहै, मान मध्य मलि रहे किये कष्ट तन को ।। तीरथ अनेक न्हाये, तिरत न कहूं भये, कीरति के काज दियौ दानहू रतनको । ज्ञान बिना बैर-बैर क्रिया करी फैर-फैर, कियौ कोऊ कारज न आतम जतन को ।। जैन कवि भगवतीदास ने ऐसी बाह्य क्रियाओं का खण्डन किया है जिनमें सम्यक् ज्ञान और आचार का समन्वय न हो - देह के पवित्र किये आत्मा पवित्र होय, ऐसे मूड़ भूल रहे मिथ्या के भरम में।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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