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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना
निरर्थक बताया है।" मुनि रामसिंह ने भी उससे आभ्यंतर मल घुलना असंभव माना है।" ये आचार्य कुन्दकुन्द से भलीभांति प्रभावित रहे हैं। सिद्ध सरहपाद ने भी तीर्थस्थान आदि बाह्याचार का खण्डन कर अचेलावस्था, पिच्छि, केशलुंचन आदि क्रियाओं की निम्न प्रकार से आलोचना की है-"
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यदि नंगाये होइ मुक्ति तो शुनक - श्रृगालहु । लोम उपाटे होइ सिद्धि तो युवति नितम्बहु ।। पिच्छि गहे देखेउ जो मोक्ष तो मारेहु चरमहुं । उम्छ- भोजने होइ ज्ञान तो करिहुं तुरंगहु || सरह मने क्षपण की मोक्ष, मोहि तनिक न भावइ । तत्त्व रहित काया न ताप, पर केवल साधइ ।।
कबीर ने भी धार्मिक अन्धविश्वासों, पाखण्डों और बाह्याडम्बरों के विरोध में तीक्ष्ण व्यंग्योक्तियां कसी हैं । मात्र मूर्तिपूजा करने वालों" और मूड़ मुड़ाने वालों" के ऊपर कटु प्रहार किया है। कबीर का विचार है कि इनसे बाह्याचारों के ग्रहण करने की प्रवृत्ति तो बनी रहती है परन्तु मन निर्विकार नहीं होता इसलिए हाथ की माला को त्यागकर कवि ने मन को वश में करने का आग्रह किया है । " जोगी खंड में बाह्याचार विरोध की हल्की भावना जायसी में भी मिलती है जब रत्नसेन ज्योतिषी के कहने पर उत्तर देता है कि प्रेम मार्ग में दिन, घड़ी आदि बाह्याचार पर दृष्टि नहीं रखी जाती ।" अन्यत्र स्थलों पर भी उन्होंने झकझोर देने वाले करारे व्यंग्य किये हैं। नग्न रहने से ही यदि योग होता है तो मृग को भी मुक्ति मिल जाती और यदि मुण्डन करने से