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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना माध्यम से व्यक्त किया है। उन्होंने इसके अनेक रूप बताये हैं - स्वप्नवाद, क्षणिकवाद और शून्यवाद। इन्हीं को ऋषियों ने अध्यास, अनिर्वचनीय, ख्यातिवाद आदि के सहारे स्पष्ट किया है।" अद्वैत वेदान्त के अनुसार आत्मा माया द्वारा ही सृष्टि का निमित्तोपादान कारण है और उसके दूर होने से एक आत्मा अथवा ब्रह्म ही शेष रह जाता है। इसके विपरीत तांत्रिकों का मायावाद है। जहाँ माया मिथ्या रूप नहीं बल्कि सद्रूप है।
आदि और मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों ने मिथ्यात्व, मोह और कर्म को अपने काव्य में प्रस्तुत किया है जिसे हम पंचम परिवर्त में देख चुके हैं। सगुण-निर्गुण हिन्दी के अन्य कवियों ने भी माया के इसी रूप का वर्णन किया है जायसी ने ब्रह्मविलास में माया और शैतान ये दो तत्त्व बाधक माने हैं। अलाउद्दीन और राघव को चेतन के शैतान के रूप में चित्रित किया है। रत्नसेन जैसा सिद्ध साधक उसकी अचिन्त्य शक्ति के सामने घुटने टेक देता है। माया को कवि ने नारी का प्रतिरूप माना है।" माया अहंकार और जड़ता को भी व्यंजित करती है। अलाउद्दीन को अहंकार का अवतार बताया गया है। 'नागमती यह दुनियां धंधा' कहकर नागमती को भी माया का प्रतीक माना है। माया, छल, कपट, स्त्री आदि शब्द समानार्थक है। जायसी ने इसीलिए नारी (नागमती) के स्वभाव को प्रस्तुत कर मिथ्यात्व, माया और मोहको अभिव्यंजित किया है।
जो तिरियां के काज न जाना । परे धोख पीछे पछताना ।। नागमति नागिनि बुधि ताऊ । सुधा मयूर होइ नहिं काऊ ।।"
सूर ने बल्लभाचार्य का अनुकरण करते हुए माया को ईश्वर की ही शक्ति का प्रतीक माना है। वह सत्य और भ्रम दोनों रूप है। शंकराचार्य की दृष्टि में अविद्या के दूर होने पर जीव और जगत् का भी