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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना
शरीर की विनश्वरता के सन्दर्भ में सोचते-सोचते साधक संसार की क्षणभंगुरता पर चिन्तन करने लगता है। जैन-जैनेतर साधकों ने एक स्वर से जीवन को क्षणिक माना है। तुलसीदास ने जीवन की क्षणिकता को बड़े काव्यात्मक ढंग से ‘कलिकाल कुदार लिये फिरता तनु नभ्र है, चोर झिली न झिली' रूप में कहा।" और भूधरदास ने उसे “कालकुठार लिए सिर ठाड़ा क्या समझै मन फूला रे' रूप से सम्बोधित किया। कबीर ने शरीर को कागज का पुतला कहा जो सहज में ही घुल जाता है -
मन रे तन कागद का पुतला । लागै बूंद विनसि जाइ छिन में, गरब करै क्या इतना । माटी खोदहिं भींत उसारै, अंध कहै घर मेरा । आवै तलव बाधि ले चाले, बहुरि न करिहे फेरा । खोट कपट करि यहु धन जोयौ, लै धरती में गाड्यौ ।। रोक्यौ घटि सांस नहीं निकसै, ठौर-ठौर सब छाड्यौ ।। कहै कबीर नट नाटिक थाके, मदला कौन बजावै । गये पषनियां उझरी बाजी, को काहू के आवै।।३
इसी तथ्य को भगवतीदास ने 'घटै तेरी आव कछे त्राहिं को उपावरे' कहकर अभिव्यक्त किया है। कबीर ने संसार को ‘कागद की पुड़िया' भी कहा है जो बूंद पड़े घुल जाती है। माता, पिता, परिवार जन सभी स्वार्थ के साथी हैं जो शरीर के नष्ट होने पर उसे जलाकर वापिस आ जाते हैं।
मन फूला-फूला फिरै जगत में कैसा नाता रे । माता कहे यह पुत्र हमारा वहन कहे बिर मेरा । भाई कहै यह भुजा हमारी नारी कहै नर मेरा । पेट पकरि के माता रोवै बांह पकरि के भाई ।