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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना हो जाता है कि वह उपालम्भ दिये बिना नहीं रहती। वह कहती है कि मैं मन, वचन और कर्म से तुम्हारी हो चुकी, पर तुम्हारी यह निष्ठुरता और उपेक्षा क्यों ? तुम्हारी प्रवृत्ति फूल-फूल पर मंडराने वाले भ्रमर जैसी है तो फिर हमारी प्रीति का निर्वाह कैसे हो सकता है ? जो भी हो, मैं प्रिय से उसी प्रकार एकाकार हो चुकी हूँ जिस प्रकार पुष्प में उसकी सुगन्ध मिल जाती है। मेरी जाति भले ही निम्न कोटि की हो पर अब तुम्हें किसी भी प्रकार के गुण-अवगुण का विचार नहीं करना चाहिए। पिया तुम निठुर भए क्यूं ऐसे। . मैं मन बच क्रम करी राउरी, राउरी रीति अनैसैं ।। फूल-फूल भंवर कैसी भाउंरी भरत ही निबहै प्रीति क्यूं ऐसे । मैं तो पियतें ऐसि मिली आली कुसुम वास संग जैसे । ओछी जात कहा पर ऐती, नीर न हैयै भैसें। गुन अवगुन न विचारी आनन्दघन, कीजियै तुम हो तैसे।।३२
"सुहागण जागी अनुभव प्रीति' में पगी और अन्तःकरण में अध्यात्म दीपक से जगी आनन्दघन की आत्मा एक दिन सौभाग्यवती हो जाती है । उसे उसका प्रिय (परमात्मा) मिल जाता है। अतएव वह सौलहों श्रृंगार करती है। पहनी हुई झीनी साड़ी में प्रीति का राग झलक रहा है। भक्ति की मेंहदी लगी हुई है, शुभ भावों का सुखकारी अंजन लगा हुआ है। सहजस्वभाव की चूड़ियाँ और स्थिरता का कंकन पहन लिया है, ध्यान की उर्वशी को हृदय में रखा और प्रिय की गुणमाला को धारण किया। सुरति के सिन्दूर से मांग संवारी,निरति की वेणी सजाई। फलतः उसके हृदय में प्रकाश की ज्योति उदित हुई। अन्तःकरण में अजपा की अनहद ध्वनि गुंजित होती है और अविरल आनन्द की सुखद वर्षा होने लग जाती है।