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________________ 318 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना जाको जस जपत प्रकाश जगे हिरदै में, सोइ सुद्धमति होई हुती जु मलिन सी । कहत बनारसी सुमहिमा प्रगट जाकी, सो है जिनकी छवि सुविद्यमान जिनसी ।। ७५ कविवर दौलतराम ने जिन दर्शन करके भरपूर सुख पाया 'निरखत सुख पायौ, जिन मुखचन्द'। उन्हें जिन दवि त्रिभुवन आनन्दकारिणी और जगतारिणी प्रतीत हुई है।" बुधजन के नयन नाभिकुअर के दर्शन करते ही सफल हो गये 'तिरखै नाभिकुअरजी, मेरे नैन सफल भये' । जिनेन्द्र के दर्शन करते ही उनका मिथ्यातम भाग गया, अनादिकालन संताप मिट गया और निजानुभव पाकर अनन्त हर्ष पा लिया - लखेँ जी अज चन्द जिनन्द प्रभु की मिथ्यातम मम भागौ । । टेक ॥। अनादिकाल की तपत मिटी सब, सूतौ जियरौ जागौ ।। १ ।। निज संपति निज ही मैं पाई, तब निज अनुभव लागौ । बुधजन हरषत आनन्द वरषत, अमृत झर मैं पागौ ।।२।। ७७ भक्त कवि आराध्य का दर्शन कर भक्तिवशात् उनके समझ अपने पूर्वकृत कर्मो का पश्चात्ताप करता है जिससे उसका मन हल्का होकर भक्ति भाव में और अधिक लीन हो जाता है। भट्टारक कुमुदचन्द्र 'मैं तो नरभव बोधि गवायो । न कियो जपतप व्रत विधि सुन्दर, काम भलो न कमायो ।' तथा 'चेतन चेतत क्यूं बावरे । विषय विषे लपटाय रहियो कहा, दिन दिन छीजत जात आपरे' जैसे पद्यों में अपना भक्ति-सिक्त पश्चात्ताप व्यक्त करते हैं । " रूपचन्द 'जनमु अकारथ ही जु गयौ।। धरम अकारथ काम पद तीनौ, एकोकरि न लयौ।” द्यानतराय तो ‘कबहू' न निज घर आये ।। परघर फिरत बहुत ७८
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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