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रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियाँ
317 जिन प्रतिमा जिन सम लेखीयइ । ताको निमित्त पाय उर अन्तर राग दोष नहि देखीयइ ।। सम्यग्दृष्टि होइ जीव जे, जिस मन ए मति रेखीयइ । यह दरसन जांकू न सुहावइ, मिथ्यामत येखीयइ । चितवत चित चेतना चतुर नर नयन मेष जे मेखीयइ । उपशम कृपा ऊपजी अनुपम, कर्म करइ न सेखीयइ ।। वीतराग कारण जिन भावन, ठवणा तिण ही पेखीयइ । चेतन कंवर भये निज परिणति, पाप पुन्न दुइ लेखीयइ ।।
ब्रह्म गुलाल एक कुशल भक्तकवि थे। उनकी अनेक रचनाएं उपलब्ध हैं। उन्होंने कृपणजगावनहार में जिनप्रतिमा की महिमा का सुन्दर वर्णन किया है -
प्रतिमा कारणु पुण्य निमित्त, बिनु कारण कारज नहि मित्त प्रतिमा रूप परिणवै आपु, दोशादिक नहिं व्यापै पापु । क्रोध लोभ माया बिनु मान, प्रतिमा कारण परिणवै घान, पूजा करत होइ यह भाउ, दर्शन पाये गलै कषाउ।
विद्यासागर ने 'निरख्यो नयने जब रसायन मन्दिर सुखकर' लिखकर भगवान के दर्शन का आनन्द लिया है। बनारसीदास ने जिनबिम्ब प्रतिमा के माहात्म्य का इस प्रकार वर्णन किया है -
जाके मुख दस्ससौं भगत के नैननिकों, थिरता को बानि बढे चंचलता विनसी । मथद्रा देखि केवली की मुद्रा याद आवै जहां, जाके आगे इन्द्र ही विभूति दीसै तिनसी ।।