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रहस्यभावना के बाधक तत्त्व
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बंधा हुआ है । यह जड़ है और तू चेतन, फिर भी यह अपनापन कैसे ? ये विषयभोग भुजंग के समान हैं जिसके डसते ही जीव मृत्यु- मुख में चला जाता है। इनके सेवन करने से तृष्णा रूपी प्यास वैसी ही बढ़ती है जैसे क्षार जल पीने से बढ़ती है। है नर ! सयाने लोगों की शिक्षा को स्वीकार क्यों नहीं करते ? मोह-मद पीकर तुमने अपनी सुध भुला दी। कुबोध के कारण कुव्रतों में मग्न हो गये, ज्ञान सुधा का अनुभव नहीं लिया। पर पदार्थों से ममत्व जोड़ा और संसार की असारता को परखा नहीं ।
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विषय सेवन से उत्पन्न तृष्णा के खारे जल को पीने के बाद उसकी प्यास बढ़ती है, खाज खुजाने के समान प्रारम्भ में तो अच्छी लगती है पर बाद में दुःखदायी होती हैं। वस्तुतः इन्द्रिय भोग विषफल के समान है । '
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बुधजन को तो आत्मग्लानि-सी होती है कि इस आत्मा ने स्वयं के स्वरूप को क्यों नहीं पहिचाना। मिथ्या मोह के कारण वह अभी तक शरीर को ही अपना मानता रहा। धतूरा खाने वाले की तरह यह आत्मा अज्ञानता के जाल में फंस गया है। इसलिए कवि को यह चिन्ता का विषय हो गया कि वह किस प्रकार शाश्वत् सुख को प्राप्त करेगा । १५ मोह से ही मिथ्यात्व पनपता है।"" इसलिए साधकों और आचार्यों ने इस मोह को विनष्ट करने का उपदेश दिया है। जब तक विवेक जाग्रत नहीं होता, मोह नष्ट नहीं हो सकता। यशपाल का मोहपराजय, वादिचन्द सूरि का ज्ञानसूर्योदय, हरदेव का मयणपराजय-चरिउ, नागदेव का मदनपराजय चरित और पाहल का मनकरहारास विशेष उल्लेखनीय है । बनारसीदास का मोह विवेक युद्ध
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