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________________ 236 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना डरता है पर यमराज को नहीं डरता । तू मोह में इतना अधिक उलझ गया है कि तेरी मति और गति दोनों बिगड़ गई है। तूं अपने हाथ अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहा है।" स्वप्न बत्तीसी कवि ने मोह-निद्रा का अत्यन्त स्पष्ट चित्रण किया है और कहा है कि उसके त्यागे बिना अविनाशी सुख नहीं मिल सकता।" मेरे मोह ने मेरा सब कुछ बिगाड़ कर रखा है। कर्मरूप गिरिकन्दरा में उसका निवास रहता है। उसमें छिपे हुए ही वह अनेक पाप करता है पर किसी को दिखाई नहीं देता । इन्द्रिय वाना में परधन के अपहरण का भाव दिखाई देता है। बड़ी श्रद्धा के साथ कवि कहता है इन सभी विकारों को दूर करने का एक मात्र उपाय जिनवाणी है - ११० मोह मेरे सारे ने विगारे आनजीव सब, जगत के बासी तैसे बासी कर राखे है । कर्मगिरिकंदरा में बसत छिपाये आप, करत अनेक पाप आत केसे भाखे है ।। विषैवन और तामे चोर को निवास सदा, परघ न हरवे के भाव अभिलाखे है । तापै जिनराज जुके बैन फौजदार चढ़े, आन आन मिले तिन्हे मोक्ष वेश दाखे है । १११ दौलतराम का जीव तो अनादिकाल से ही शिवपथ को भूला है। वह मोह के कारण कभी इन्द्रिय सुखों में रमता है तो अभी मिथ्याज्ञान के चक्कर में पड़ा रहता है ।" जब अविद्या - मिथ्यात्व का पर्दा खुलता है तो वह कह उठता है, रे चेतन, मोहवशात् तूने व्यर्थ में इस शरीर से अनुराग किया। इसी के कारण अनादिकाल से तूं कर्मों से
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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