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________________ 160 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना सन् १९०० के आस-पास प्रारम्भिक हुआ। उसकी रचना ग्रीक भाषा के Mystikes शब्द से होनी चाहिए जिसका अर्थ किसी गुह्य ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधनारत दीक्षित शिष्य है। उस दीक्षित शिष्य द्वारा व्यक्त उद्गार अथवा सिद्धान्त को रहस्यवाद कहा गया है। इसमें साधना प्रधान है और अनुभूति या साक्षात्कार की व्यंजना गर्भित है। रहस्यवाद की परिभाषा वाद शब्द की निष्पत्ति वधातु प्रत्यय घञ् (वद् +अ)से हुई है जिसका अर्थ कथन होता है। उत्तरकाल में इसका प्रयोग सिद्धान्त और विचारधारा के संदर्भ में होने लगा है। आरम्भवाद, परिणामवाद, विवर्तवाद, अनेकान्तवाद, विज्ञानवाद, मायावाद आदि ऐसे ही प्रयोग हैं। जहा वाद होता है, वहां विवाद की श्रृंखला तैयार हो जाती है। आत्मसाक्षात्कार की भावना से की गई योग साधना के साथ भी वाद जुडा और रहस्यवाद की परिभाषा में अनेक रूपता आयी । इसलिए साहित्यकारों में रहस्य भावना को कहीं दर्शन परक माना और कहीं भावात्मक तो कहीं प्रकृति मूलक, कहीं यौगिक तो कहीं अभिव्यक्तिमूलक । परिभाषाओं का यह वैविध्य साधकों की रहस्यानुभूति की विविधता पर ही आधारित रहा है। इतना ही नहीं, कुछ विद्धानों ने तो रहस्य भावना का सम्बन्ध चेतना, संवेदन मनोवृत्ति और चमत्कारिता से भी जोडने का प्रयत्न किया है। इसलिए आजतक रहस्यवाद की परिभाषा सर्वसम्मत नहीं हो सकी । रहस्यवाद की कतिपय परिभाषायें इस प्रकार हैं - १. भारतीय विद्वानों की दृष्टि में रहस्यवाद डॉ. एस राधाकृष्णन् ने धर्म, अध्यात्म और रहस्यवाद के बीच
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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