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________________ मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियां 133 खरतरगच्छ के आचार्य जिनपद्मसूरि (सं. १४००) की सिरिथूलिभद्दफागु बडी सुन्दर रचना है। काव्यत्व की दृष्टि से सरस और मधुर हैं। उन्होंने पहले तो कोशा के अंग-प्रत्यंग की सुषमा का बड़ा आकर्षक चित्र प्रस्तुत किया। कवि लिखता है - मयण खग्ग जिम लहलहंत जसु वेणी दंडो। सरलउ तरलउ सामलउ रोमावलि दंडो। तुंग पयोहर उल्लसइ सिंगार थवक्का । कुसुम वाणि निय अमिथ कुंभ किर थायणि मुक्का ।।१२।।१ (प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह क्रम सं० ५, एवम्) और फिर कोशा द्वारा नाना प्रकार के स्थूलभद्र को रिझाने का प्रयत्न करने पर भी स्थूलभद्र का अडिग रहने का चित्र खींचना है। उनकी संयम साधना का एक और मार्मिक चित्रण देखिए - चिंतामणि परिहरवि कवणु पत्थर गिव्हेइ। तिम संजय सिरि परिन एवि बहुधम्म समुज्जल, आलिंगइ तुह कोस कवनु पर संत महाबल। इनके अतिरिक्त फागुलमास वर्णन सिद्धिविलास (सं १७६३), अध्यात्म फागु, लक्ष्मीबल्लभ फागु रचनाओं के साथही धमाल-संज्ञक रचनाएँ भी जैन कवियों की मिलती है जिन्हें हिन्दी में धमार कहा जाता है। अष्टछाप के कवि नन्ददास और गोविन्ददास आदिने वसंत और टोली पदों की रचना धमार नाम से ही की है। लगभग १५-२० ऐसी ही धमार रचनाएँ मिलती हैं जिनमें जिन समुद्रसूरि की नेमि होरी रचना विशेष उल्लेखनीय है। बेलि साहित्य में वाछा की चहुंगति वेलि (सं १५२० ई०),
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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