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मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियां ___131 आदि अनेक कवि हुए है जिन्होंने संगीत साहित्य लिखा है । देखिए कविवर द्यानतराय की सोलहकारण पूजा में कितनीभाव विभोरता है -
कंचन झारी निर्मल नीर, पूजो जिनवर गुन गभीर । परमगुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ।। दरशविशुद्ध भावना भाय सोलह तीर्थकर पद पाय । परमगुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ।
इसी पकार भगवतीदास ने ब्रह्मविलास में परमात्मा की जयमाला में ब्रह्मरूप परमात्मा का चित्रण किया है।
एक हि ब्रह्म असंख्यप्रदेश । गुण अनंत चेतनता भेष । शक्ति अनंत लसै जिह माहि। जासम और दूसरा नाहिं ।। दर्शन ज्ञान रूप व्यवहार । निश्चय सिद्ध समान निहार। नहिं करता नहिं करि है कोय। सदा सर्वदा अविचल सोय।।
चडपई काव्यों में ज्ञानपंचमी, बलिभद्र, ढोलामारु, कुमतिविध्वंस, विवेक, मलसुन्दरी आदि रचनाएँ उल्लेखनीय हैं जो भाषा और विषय की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। इनके अतिरिक्त मालदेव की पुरन्दर चौ., सुरसुन्दरी चौ., वीरांगद चौ., देवदत्त चौ. आदि,रायमल की चन्द्रगुप्त चौ., साधुकीर्ति की नमिराज चौ., सहजकीर्ति की हरिश्चन्द्र चौ., नाहर जटमल की प्रेमविलास चौ., टीकम की चतुर्दश चौ., जिनहर्ष की ऋषिदत्ता चौ., यति रामचन्द्र की मूलदेव चौ., लक्ष्मी बल्लभ की रत्नहास चउपई भी सरसता की दृष्टि से उदाहरणीय हैं। १०. चूनड़ी काव्य
चूनड़ी काव्य में रूपक तत्त्व अधिक गर्भित रहता है। इसी के माध्यम से जैनधर्म के प्रमुख तत्त्वों को प्रस्तुत किया जाता है।