________________
मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियां
119 का योगीरासा (सं. १६६०), हीरकलश का सम्यक्त्व कौमुदीरास (सं. १६२६), भगवतीदास (सं. १६६२), के जोगीरासा आदि, सहजकीर्ति के शीलरासादि (सं.१६८६) भाऊ का नेमिनाथ रास (सं. १७५९), चेतनविजय का पालरास जैन रासा ग्रन्थों में उल्लेखनीय हैं।
इन रासा ग्रन्थों में श्रृंगार, वीर, शान्त और भक्ति रस का प्रवाह दिखाई देता है। प्रायः सभी रासों का अन्त शान्तरस से रंजित है। फिर भी प्रेम और विरह के चित्रों की कमी नहीं है। इस सन्दर्भ में 'अंजना सुन्दरी रास' उल्लेख्य है जिसमें अंजना के विरह का सुन्दर चित्रण किया गया है। इस सन्दर्भ में वसन्त का चित्रण देखिए, कितना मनोहारी है -
मधुकर करई गुंजारव मार विकार वहति । कोयल करइ पटहुकड़ा ढूकढ़ा मेलवा कन्त ।। मलयाचल थी चलकिरा पुलकिउ पवन प्रचण्ड। मदन महानृप पाझइ विरहिनि सिरदण्ड।।
शान्तरस से युक्त पं. भगवतीदास का 'जोगीरास' भी दृष्टव्य है। जिसमें जीव को अपने ही अन्दर विराजमान चिदानन्द रूपी शिवनायकका भजन कर संसारसमुद्रसेपार होने कीअभिव्यंजनाकी हैपेखहू हो तुम पेखहु भाई, जोगी जगमहि सोई। घट-घट अन्तरि वसइ चिदानन्दु, अलखु न लखिए कोई।। भव-वन-भूल रही भ्रमिरावलु, सिवपुर-सुध विसराई। परम अतीन्द्रिय शिव-सुख-तजि करि, विषयनि रहिउ लुभाइ।। अनन्त चतुष्टय-गुण-गण राजहिं तिन्हकी हउ बलिहारी। ममनिधरि ध्यानु जयह शिवनायक, जिउं उतरहुं भवपारी।।