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मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियां
117 तबहिं पावड़ी देखि चोर भूपति निज जान्यौ। देखि मुद्रिका चोर तर्ब मन्त्री पहिचान्यो। सूत जनेऊ देखि चोर प्रोहित है भारी। पंचनि लखि विरतान्त यहै मन में जु विचारी।। भूपति यह मन्त्री सहित प्रोहित युत काढी दयौ। इह भांति न्याव करि भलिय विकध धर्मथापि जग जस लयौ।।
इस प्रकार का काव्य वैशिष्ट्य मध्यकालीन हिन्दी जैन कथा काव्यों में अन्यत्र भी देखा जा सकता है। इसके साथ ही यहां जैन सिद्धान्तों का निरूपण कवियों का विशेष लक्ष्य रहा है। ५. रासा साहित्य
हिन्दी जैन कवियों ने रासा साहित्य के क्षेत्र में अपना अमूल्य योगदान दिया है। सर्वेक्षण करने से स्पष्ट है कि रासा साहित्य को जन्म देने वाले जैन कवि ही थे। जन्म से लेकर विकास तक जैनाचार्यो ने रासा साहित्य का सृजन किया है। रासा का सम्बन्ध रास, रासा, रासु, रासौ आदि शब्दों से रहा है जो ‘रासक' शब्द के ही परिवर्तित और विकसित रूप है। ‘रासक' का सम्बन्ध नृत्य, छन्द अथवा काव्य विशेष से है। यह साहित्य गीत-नृत्य परक और छन्द वैविध्य परक मिलता है। जैन कवियों ने गीत-नृत्य परक परम्परा को अधिक अपनाया है। इनमें कवियों ने धर्म प्रचार की विशेष महत्त्व दिया है। इस सन्दर्भ में शालिभद्रसूरि का पांच पाण्डव रास (सं. १४१०), विनयप्रभ उपाध्याय का गौतमरास (सं. १४१२), सोमसुन्दरसूरि का आराधनारास (सं. १४५०), जयसागर के वयरस्वामी गुरुरास और गौतमरास, हीरानन्दसूरि के वस्तुपाल तेजपाल रासादि (सं. १४८६),