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मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियां
115 कवि हीरालाल द्वारा रचित चन्द्रप्रभचरित काव्य चमत्कार की दृष्टि से अति मनोहर है। इस सन्दर्भ में निम्न पद्य दर्शनीय हैकवल बिना जल, जल बिन सरवर, सरवर बिन पुर, पुर बिन राय। रायसचिव बिन, सचिव बिना बुध, बुध विवेकबिन बिनशोधनपाय।।
इसी प्रकार नवलशाह विरचित वर्द्धमान चरित्र में अंकित महारानी प्रिय कारिणी के रूप सौन्दर्य का चित्रण (नख शिख वर्णन) जैनेतर कवियों से हीन नहीं है। अम्बुज सौं जुग पाय बेने, नख देख नखन्त भयौ भय भारी। नूपुर की झनकार सुनै, दुग शरीर भयौ दशहू दिश भारी। कंदल थंभ बने जुग जंग, सुचाल चलै गज की पिय प्यारी। क्षीन बनौ कटि केहरि सौ, तन दामिनी होय रही लज सारी।। नाभि निबौरियसी निकसी, पढ़हावत पेट संकुचन धारी। काम कपिच्छ कियौ पट रन्तर, शील सुधी धरै अविकारी।। भूषण बारह भाँतिन के अन्त, कण्ठ में ज्योति लसै अधिकारी। देखत सूरज चन्द्र छिपै, मुख दाडिम दंद महाछविकारी।।
इस प्रकार मध्यकालीन हिन्दी जैन चरित काव्य भाव, भाषा और अभिव्यक्ति की दृष्टि से उच्च कोटि के हैं। वस्तु और उद्देश्य बडी सूक्ष्मता से समाहित है। पात्रों के व्यक्तित्त्व को उभारने में जैन सिद्धान्तों का अवलम्बन जिस ढंग से किया गया है वह प्रशंसनीय है। सांसारिक विषमताओं का स्पष्टीकरण और लोकरंजनकारी तत्त्वों की अभिव्यंजना जैन साधक कवियों की लेखनी की विशेषता है। प्राचीन काव्यों में चरितार्थक पवीड़ो काव्य भी उपलब्ध होते हैं। इसी सन्दर्भ में भगवतीदास के वृहद् सीता सतु और लघु सीता सतु जैसे सत् संज्ञक काव्य भी उल्लेखनीय हैं।