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आदिकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियाँ
101 आदि स्तोत्र काव्य और वैराग्यशतक, वैराग्य रसायन प्रकरण आदि नीतिपरक गीतिकाव्यों को भी उल्लिखित किया जा सकता है।
प्राकृत गीतिकाव्य या मुक्तक काव्य की पृष्ठभूमि में पारलौकिकता और मुक्ति-प्राप्ति का दृष्टिकोण मुख्य रहा है। इस दृष्टि से सूत्रकृतांग और उत्तराध्यन का विशेष स्थान है। मुक्तक काव्य के रचनाकारों में आचार्य कुन्दकुन्द, स्वामी, कार्तिकेय, शिवार्य, नेमिचन्द्र, सिद्धान्तचक्रवर्ती, योगीन्दु, हेमचन्द्र, मुनि रामसिंह, देवसेन आदि सन्तों के नाम उल्लेखनीय हैं। गाथासप्तशती, सेतुबन्ध, कर्पूरमंजरी, वज्जालग्गं आदि ग्रन्थ भी मुक्तक काव्य की परम्परा में आते हैं।
इसी परम्परा से परमात्मप्रकाश, पाहुड दोहा, सावयधम्म दोहा जैसे मुक्तक काव्य भी सम्बद्ध हैं। इस परम्परा ने रीति युगीन हिन्दी मुक्तक काव्य परम्परा पर भी विषद् प्रभाव डाला है। इस युग में ऋगार और प्रकृति को काव्य का मुख्य विषय बनाया गया। विशेषता यह रही कि रीतिकालीन कवियों ने नायिकाओं के कंगार और प्रसाधन में जो अतिशयोक्ति पूर्ण व्यंजना का प्रदर्शन किया, वह प्राकृत काव्य में नहीं दिखता। प्राकृत मुक्तक काव्य में नायिकाएँ नागरिक एवं ग्राम्य इन दोनों क्षेत्रों से आती थीं। इनके प्रेम-प्रसंगों में तत्कालीन रीतिनीति, आचार-विचार एवं युग-संदर्भो का प्रतिफलन होता था। यहाँ मात्र शब्दाडम्बर और अलंकार-प्रियता ही नहीं थी, बल्कि तारल्य
और उक्ति वैचित्र्य भी दिखाई देता था। यह सब रीतिकालीन हिन्दी मुक्तक काव्य में नहीं मिलता। सतसई के व्यंजना गर्भित काव्य जैसा