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________________ आदिकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियाँ प्रारंभ होता है। इसमें पृथक्-पृथक् विषय पर पृथक् अध्याय लिखे गये हैं जिनमें गीतात्मकता, संक्षिप्तता और प्रभावोत्पादकता भी है। उसके बाद मुक्तक के रूप में नंदी और अनुयोगद्वार का उल्लेख किया जा सकता है। उल्लेखनीय यह है कि अनुयोगद्वार में नव-रसों में श्रृंगार रस को भी महत्ता दी गयी है, यद्यपि भक्ति रस और शां तरस के भी बीज वहाँ दिखाई देते हैं। इन्हीं ग्रंथों से मुक्तक काव्य में यह परम्परा प्रतिबिम्बत हुई है। उत्तरकाल में इसी परम्परा का विकास हुआ है । इस दृष्टि से प्राकृत का इतना अधिक महत्त्व हो गया कि यह प्रसिद्ध हुआ अमिअ पाउय कव्वं पढिउं सोउं अ जेण जाणंसि । कामस्स तत्त-तंतिं कुणंति ते कहं न लज्जंति । । 99 - इसलिए प्राकृत साहित्य को मुक्तक काव्य की दृष्टि से स्वर्णयुग कहा जाने लगा। गाहा सतसई, वज्जालग्गं जैसे काव्य इस मान्यता की पृष्ठभूमि में रहे हैं। राजा सतवाहन हाल के जैन होने की संभावना अधिक है। उनके द्वारा विरचित / संकलित गाहा सतसई प्राकृत साहित्य का मूर्धन्य मुक्तक काव्य है। कहा जाता है, हाल ने एक करोड प्राकृत गाथाओं में से मात्र ७०० गाथाएं संग्रहीत कीं जिनमें रसप्रवणता और गेयात्मकता अधिक थी । वाणभट्ट रुद्रट, मम्मट, वाग्भट, विश्वनाथ, गोवर्धन आदि महाकवियों ने गाहासतसई में संकलित गाथाओं की ध्वन्यात्मकता की बडी प्रशंसा की है और उन्हें अपने ग्रन्थों में उदाहरण के रूप में उद्धृत किया है। एक उदाहरण देखिएरेहंति कुमुअदलणिच्चलट्ठिआ मत्तमहुअरणिहाआ । ससिअरणीसेसपणासिअस्स गंठि व्व तिमिरस्स । । - गाथा सं. ५६१ वज्जालग्गं सूक्ति-मुक्तक काव्यों का एक सुन्दर संकलन है
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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