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________________ आदिकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियाँ पालि साहित्य यद्यपि गद्य और पद्य दोनों में उपलब्ध है, पर उसकी पद्य परम्परा प्रगीत काव्य परम्परा का ही अभिन्न अंग कही जा सकती है। “सुत्तपिटक' के लगभग सभी ग्रंथों में यह परम्परा द्रष्टव्य है। उदान, इतिवृत्तक, थेर गाथा, थेरी गाथा, धम्मपद और सुत्तनिपात तो हैं ही, साथ ही दीघनिकाय, मज्झिमनिकाय और संयुत्तनिकाय में तथागत द्वारा कथित “उदान वचन' भी प्रगीतकाव्य के ही अंग हैं। उदान का अर्थ ही है - उदानति पीतिवेग समुट्ठावितो उदाहारो। उदान का पद्यभाग इस प्रकार के प्रीति के आवेग से समुत्थित बुद्ध के वचनों से भरा हुआ है। चित्त के परम शान्त, निर्वाण, पुनर्जन्म, कर्म, आचार आदि सन्दर्भो में उक्त ये वचन उदाहरणीय हैं। इसी तरह जैनेतर प्राकृत-अपभ्रंश साहित्य में भी गीति-परम्परा देखी जा सकती है, जैसे कर्पूरमंजरी, सन्देस रासक, दोहाकोश, सिद्ध साहित्य आदि। जैन संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश गीति काव्य परम्परा जैन गीति काव्य परम्परा उपलब्ध जैन साहित्य में प्रभूत रूप से देखी जा सकती है। यहां हम उसके प्राकृत, अपभ्रंश संस्कृत और हिन्दी साहित्य की ओर विशेष रूप से झांकेगे और उसके महत्त्व पर प्रकाश डालेंगे। सर्वप्रथम हमारा ध्यान आगमों में उल्लिखित बहत्तर कलाओं पर जाता है जहां गीति को कला का दर्जा दिया गया है। ज्ञाताधर्मकथा (सूत्र ९९) में उसे २५ वें क्रम पर रखा गया है तो औपपातिकसूत्र क्र. ४० में उसे पांचवीं कला के रूप में पहचाना गया है। रायपसेणिय सूत्र, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, समवायांग आदि आगम ग्रन्थों में भी उल्लिखित ७२ कलाओं में गीति को समुचित स्थान मिला है। समवायांग (सूत्र ७२) में तो गीत के साथ ही गाहा को भी कलाओं में समाहित किया गया है। ज्ञाताधर्मकथा आदि ग्रन्थों में भी गाथा को पृथक् कला के रूप में
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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