________________
आदिकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियाँ स्वयंभू यापनीय संघ के आचार्य थे। वे कोसल के मूल निवासी थे पर उनका कार्य क्षेत्र मान्यखेट अधिक रहा जहां वे राष्ट्रकूट राजा ध्रुव (वि.सं. ८३७-८५१) के मंत्री रयडा धनंजय के आग्रह पर पहुंचे। स्वयंभू के दो ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं - पउमचरिउ और रिटुणेमिचरिउ (हरिवंश पुराण)। इन दोनों के अन्तिम भागों को वे पूरा नहीं कर सके। उन्हें पूरा किया उनके कनिष्ठ पुत्र त्रिभुवन स्वयंभू ने। ब्राह्मण परम्परा में पले-पुसे कवि ने जैन परम्परा को स्वीकारा और उसी के अनुरूप ग्रन्थ रचना की। अलौकिकता से दूर उनके ग्रन्थ राम, कृष्ण, अरिष्टनेमि जैसे महापुरुषों की मानवीय दुर्बलताओं को अभिव्यक्त करने में संकोच का अनुभव नहीं करते। संस्कृत काव्य परम्परा से जुड़े हुये इन अलंकृत काव्यों में सभी रसों का समान प्रवाह हुआ है। इन काव्यों की भाषा में लोक भाषा का भी प्रयोग काफी हुआ है। सेहरु, धवधवंति, घोलइ, भिडिय, खलइ, बलइ, गुंजा, आदि जैसे शब्द प्रारम्भिक हिन्दी की ओर यात्रा करते हुए प्रतीत होते हैं। उदाहरणतःतो भिडिय परोप्परु रणकुसल। विण्णि विणव-णाय सहास बल। विण्णि वि गिरि तुंग-सिंग-सिहर। विण्णि वि जल-हर-खगहिर-गिर।। (हरिवंशपुराण)
स्वयंभू के बाद पुष्पदंत अपभ्रंश भाषा के द्वितीय कवि हुये। वे मूलतः व्रज या यौधेय (दिल्ली) के आस पास के निवासी काश्यपगोत्रीय ब्राह्मण और शैवधर्म के उपासक थे। पर बाद में जैनधर्म के अनुयायी हो गये। इन्हें भी मान्यखेट राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीय (सं. ९९६-१०२५) के मंत्री भरत और उसके पुत्र नन्न का आश्रय मिला था। प्रकृति से स्वाभिमानी होने के कारण वे आपत्तियों के शिकार अधिक रहे। संस्कृत काव्य परम्परा से प्रभावित होने के