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षष्ठ श्री दर्शनपद पूजा दोहा
समकित विण नव पूरवी, अज्ञानी कहेवाय । समकित विण संसारमां, अरहो परहो अथडाय ॥१६॥
ढाल अगीयारवी - रागसारंग
प्रभु निर्मल दर्शन कीजये | यह टेक ॥ आतम ज्ञानको अनुभव दर्शन, सरस सुधारस पीजिये । प्रभुं - १ ॥ जस अनुभाव अनंत परियट्टा, भव संसार सहु छीजिये ॥ प्रभुं ॥ भिन्न मुहूर्त दर्शन फरसनसे, अर्ध परियट्टे सीझिये ॥प्रभु-२॥
जेही होवे देव गुरु फुनि, धर्म रंग अट्ठीमिंजिये ॥ प्रभु ॥ इस्यो उत्तम दर्शन पामी, पद्म कहे शिव लीजिये ॥ प्रभुं - ३ ॥
दोहा
समकिती अड पवयण धणी, पण ज्ञानी कहेवाय । अर्द्ध पुद्गल परावर्त्तमां, सकल कर्ममल जाय ॥१६॥ ढाल : बारवीं धन्य धन्य संप्रति साचो राजा यह देशी सम्यग्दर्शन पद तुमे प्रणमो, जे निज धुर गुण होय रे ॥
चारित्र विण लहे शाश्वत पदवी, समकित विण नहिं कोय रे ॥ सम्यगूं - १॥
सद्दहणा चउ लक्षण दूषण, भूषण पंच विचारो रे ॥
जयणा भावणा ठाण आगारा षट् षट् तास प्रकारो रे ॥ सम्यगूं-२ ॥ शुद्धि लिंग त्रण आठ प्रभावक, दशविध विनय उदारो रे ।।
म सड-सट्ठ भेदे अलंकरियो, समकित शुद्ध आचारो रे || सम्यग् - ३ केवली निरखित सूक्ष्म अरुपी, ते जेहने चित्त वसियो रे || जिन उत्तम पद पद्मनी सेवा, करवामां घणुं रसियो रे || सम्यग
सप्तमश्रीज्ञानपदपूजा दोहा
नाण स्वभाव जे जीवनो, स्वपर प्रकाशक जेह ।
तेह नाण दीपक समुं, प्रणमो धर्म स्नेह ॥ १७॥
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