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उपरथी कर्म आचरतो, भीतर समध्यानमां ॥दुःख ॥६॥
समकित स्वाद अनुठो, मारे जिनराज तुठो ॥ लाधी आत्म कमले लब्धि समज्यो हुँ सानमां ॥दुःख ॥७॥
काव्यम् : सर्वोत्तमध्येय पद्प्रधानं, सुरासुरेन्द्रैः परिपूजितं यत् ॥ सेवस्व तदध्यानवतां हि गोचरं, गुणस्वरुपं शुभ सिद्धचक्रम् ॥१॥ उपजाति वृत्तम् ॥
॥ मंत्रः ॥ मंत्रः - ॐ ह्रीं श्रीं परमपुरुषाय परमेश्वराय जन्मजरा मृत्युनिवारणाय श्रीमते जिनेन्द्राय जलादिकं यजामहे स्वाहा ॥
सप्तम ज्ञानपद पूजा
॥ दोहा ॥ स्वपर प्रकाशी ज्ञान है, स्वपर तिमिर करे नाश ॥ व्यवहारे निर्वाह कर, निश्चय पूरे आश ॥१॥
॥ ढाळ पहेली ॥
(राग-माढ) ज्ञान पद सुखकारी, दुःख विदारी, आपे श्री शिवराज ॥ भेद पांच विचारी, एकावन धारी, साधे आतम काज ॥ अंचली ॥
___ गम्यागम्य जे विण न जाणे, भक्ष्याभक्ष्य अजाण ॥ पेयापेय विचार विनानो, भटके भवदुःखखाण रे ॥ ज्ञान ॥१॥
ज्ञानी श्वासोच्छवासमा रे, करे करम जे नास ॥ अज्ञानी कोटी भवे रे, तोडी शके न ते पास रे ॥ ज्ञान ॥२॥
अंक विनानी शून्यमां रे, गणतरी जेम न थाय ॥ ज्ञान विनानु जीवतर खालं, तेम न लेखे लखाय रे ॥ज्ञान ॥३॥
___ स्याद्वाद रसथी भर्यु रे, नय निक्षेप प्रधान ॥ तारक आ परलोकमां रे, पूजो भावे भवि! ज्ञान रे ॥ज्ञान ॥४॥
चार द्वार व्याख्या धरे रे, द्रव्यानुयोगादि चार ॥ विषय मांहि प्रवर्ततुं रे, श्रुत करे भव पार रे ॥ज्ञान ॥५॥ ___श्रुतथी माण सवि मले रे, करे स्व पर प्रकाश ॥ चार मूक श्रुत बोलतुं रे पूरे भवियण आश रे ॥ ज्ञान ॥ ६॥
आत्म कमलमां दीपतुं रे, भविघट प्रकटे नाण ॥ शिव लक्ष्मी वरवा भणी रे, लब्धि मोक्ष प्रयाण रे |ज्ञान ॥७॥
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