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The Apabhra mía Passages of Abhinavagupta
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पहिलउ फुरइ फुरणु अविआरिण होइ परावर-अवर-विहाइण
देवि विमरिसई रूउ । (सा) स चिअ परिमरिसेई सरुअउ
देउ विलोअइ भईरख-रूअउ
उत्तरु एहु अणुरूउ(?) || [प्रथमं स्फुरति स्फुरणम् अविकारेण
भवति पराईरापरा-विभागेन देवी विमर्शयति रूपम् । सा एब परिमर्शयति स्वरूपम्
देवम् विलोकते भैरव-रूपम् उत्तर एषः अनुरूपः॥]
सअल बहुसंवेअणफुरितमत्त उजहित हिंचि अजत्तो हित्तउपफुर । इज कुट्टि उस अलभाव संवेअणरअणणिहाणुइउ ॥
परिआणहुएत्तिअणुतुरुछत्तुहजसउसम्मूढतुणिअच्छहतुहअत्तासिअऊउऊउसुबाहिरबितुरहुबन्धुणमोक्खतउइरिअवहुविकुणसिबिसग्गुणिसमिद्रउपुणसंहरसिज्जितिपविष्णुविरिञ्चरुद्रमअलक्खहिमसरणिरोहचिन्तइमलक्खएक्कवाअपरिआणहुअत्ताणउपरमत्थअण्णुणकोइबिआसुबहुइउसअलउसस्थत्थ । (p. 93)
सअल-वत्थु-संवेअण फुरिअ-मत्त जहिं xx
___xx xx तहिं चिअ जत्तोहुंतिउ पफुरई ज कुट्टिउ (१)। सअल-भाव-संवेअण-रअण-णिहाणु इउ
परिआणहु एत्तिअणुतुरुछन्तुहजसठ्ठ ॥ (१) सम्मूढत्तणि अच्छह तुह अत्तासिउ रूउ
रूउ सुबाहिर वितुरहु (?) बंधु ण मोक्खु तउ । xx इरिअवहु वि कुणसि विसग्गु(१)
णिमिसद्धउ पुणु संहरसि(ज्जिति) ॥ (२)
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