________________
288
Prakrit and Apabhramsa Studies
जाहणकुणहजहिं शिहपहिलउ उशिअसब्बो विअलिअरोविअम्वइबाणिब्ब उका अब्बईणजोअन्तिहि मज्जिअभेदस्फुरन्तु कामेण आसरिसेइणओअव इसोच्चिअरेच्चमेरेणमतु उजिमणि अवस्थवहिअणुसंधेइखनेन ।। (p. 16)
जाणह कुणह जहिं सिव-पहि लउ उज्झिम सम्वो वि अलिअ भेउ विअंभई जाणिव्वउ ! काअवउ ण जोअतिहि मज्झिअ भेअ फुरंतु कामेण ।। आमरिसेउण जोअवइ सो चिअरेच्चभणेण (१) मत्तउ जिम णिअवत्थ बहि अणुसंधेइ खणेण ।। [ज्ञेयस्य कार्यस्य यत्र शिव-पथे लयः xx सर्वमपि विगलितभेदम् विजृम्भते ज्ञातव्यम् । कर्तव्यम् न पश्यन्त्याम् मध्यायाम् भेदाः स्फुरन्तु कामेन ।। आभय योजयति स एव xx xx मत्तः यथा निजावस्थाम बहिः अनुसंदघाति क्षणेन ]
II
जहि जहि धावइ जंकुण तहि तहि बिअविअकाउ । अच्छन्त उपरिउणधिअपाय इहलइफलसिवणाओ ॥ (p. 18) जहिं जहिं धावइ जं कुण[३] x x x तहिं तहिं विअलिअ-काउ । अच्छंतर परिउणविअ पावा(?) इहु लइ फ्लु सिव-गाउ ।। [यत्र यत्र धावति यत् करोति x x तत्र तत्र विगलित कायम् । आसीन: xxxxxx एतद् गृहाण फलम शिव-नादम् ।।]
III पफिलउ फुरइ फुरण अवि आरिणा होइपरावर अवरविहइण देवि विसरिम इऊ उ । सासच्चिा परिसरि . सेइसऊअउदेउ विलोमई भैरव ऊअउ उत्तर एहु अणुतुल ॥ (p. 65)