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________________ 282 Prakrit and Ababhramsa Studies XIV परमानन्दनिमज्जणु इउपरमस्थिण ह्राणु । तहिं आविट्टतरत्ति दिणु जाणइ पर अप्पाणु ॥ (12.1) परमाणंद-निमज्जणउं इउ परमत्थिण न्हाणु । तहिं आविठउ (१) रत्तिदिणु जाणइ पर-अप्पाणु । [परमानन्द-निमज्जनम् इदं परमार्थेन स्नानम् । तत्र आविष्टः(१) रात्रिंदिवं जानाति परमात्मानम् ।। ] XV सिवणाहु सच्छन्दु तत्त्वकोणविअप्प इच्छ । चरि आमित्ति णजिजण हुकि. भवरोअ चिइच्छ ॥ (20.1) सिव-णाउ सच्छंदु उहु(?) को णवि अप्प इच्छ( ? )। चरिआ-मित्तिण जिण जण हु किअ भव-रोअचिइच्छ । [शिवनादः स्वच्छन्दः पश्यत(?) कः नापि अल्या इच्छा(?) । चर्यामागेण येन जनस्य कृता भव-रोग-चिकित्सा ॥] XVI जह जह जस्सु जहिं चिव पप्फुरइ अज्जवसाउ । तह तह तस्सु तहिं चिव तारिसु होइ पहाउ ॥ (4.1) जह जह जस्सु जहिं चिय पफुरइ अझवसाउ । तह तह तस्सु तहिं चिय तारिसु होइ पहाउ ।। [ यथा यथा यस्य यत्र एव प्रस्फुरति अध्यवसायः । तथा तथा तस्य तत्र एव तादृशः भवति प्रभावः ।।] XVII हतं मलिणउ हतं पसु हतं आ अह सअलभावपडलवत्तिरित्तउ । इअ द्रढनिच्छअ णिअ लिअहिअअह फुरइ णाम कह जिस्स परतत्त्वउ ॥ (4.2) हउमलिणउ हउ पसु हउ आअह (?) सअल-भाव-पडल-वइरित्तउ । इअ दढ-णिच्छअ-णिअलिअ-हिअअह फुरइ णामु कह जसु पर-तत्तउ ॥ [अहम् मलिनः अहम् पशुः अहम् अस्य(१) सकल-भाव-पटल-व्यतिरिक्तः । इति दृढ निश्चय-निगडित-हृदयस्य स्फुरति नाम कथं यस्य पर-तत्त्वम् ।।]
SR No.022756
Book TitleIndological Studies
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH C Bhayani
PublisherParshva Prakashan
Publication Year1993
Total Pages376
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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