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Prakrit and Ababhramsa Studies
VI
एहु पआसऊउ अत्तोणत सच्छन्दउ ढक्का णिअऊउ । पूणु पढइ झदि अह कमवस्व एहत परमर्थिण शिवरसु ॥ (1.1) एहु पआस-रूउ अत्ताणउ सच्छंदउ ढक्का णिअ-रू[अ]उ । पुणुवि] पअडइ झत्ति अह कम-वसु एहउ परमस्थिण xx सिव-रसु ॥ [ एषः प्रकाश-रूपः आत्मा स्वच्छन्दं छादयति निज-रूपम् । पुनरपि प्रकटयति अटिति अथ क्रमवशः एषः परमार्थेन xx शिव-रसः ॥]
VII जहि जहि फुरण फुरइ सो सअलउ परमेसरू भासइ मइ अमलउ । अत्ता नत सो श्चिय परमत्थिण इअ जानअ कज्ज परमत्थि ण ॥ (2.1) जहिं जहिं फुरणु फुरइ सो सअलउ परमेसरु भासइ महु अमलउ ।
अत्ताणउ सो च्चिय परमस्थिण इउ जाणहु कज्जु परमत्थि ण । [यत्र यत्र स्फुरणं स्फुरति स सकल: परमेश्वरः भासते मह्यम् अमलः । आत्मा स एव परमार्थेण इदं जानीत कार्य परं अस्ति न ॥]
VIII
बाहोरि सत्तिदेहिणि अदेह इजामलि पाणबुद्धिगुरुबोधइ । जो अणुसंविदि सन्धि अरोह इसो पर इक्कल लद्धणि सोहइ ॥ (22.1) बाहोरि सत्ति दोहिणि अ(१) दोहइ जामलि पाण-बुद्धि गुरु बोहइ । जो अणुसंविदि संधिअ रोहइ . सो पर इक्क कुलद्धणि सोहइ ॥ [xx xx xx xx यामले प्राण-बुद्धीः गुरुः बोधयति यः अणुसंविदि संधाय रोहते सः परं एकः कुलाध्वनि शोभते ॥ ]
1X
सुण्णउ रविससि दहन सउ उस्सउ एहु सवीरू । उहि अच्छन्तउ परमपउ पावइ अचिरे वीरु ।। (5.1) सुण्णउ रवि-ससि-दहण-सउ उस्सुउ एहु स-वीरु । तहिं अच्छंतउ परम-पउ पावइ अचिरे धीरु ।। [शून्यं रवि-शशि-दहन-समं उत्सुकः(१) एषः सबीर्यः । तत्र(?) सन् परम-पदं प्राप्नोति अचिरेण धीरः ॥]