________________ सुदर्शनका धर्म-श्रवण / [49 मेरी प्रार्थना स्वीकार कर मुझे अवश्य क्षमा करेगा। इसके सिवा मैं तुझसे एक और प्रार्थना करता हूँ। वह यह कि मैं तेरी इस दृढ़तापर बहुत ही खुश हुआ हूँ, इसलिए मैं तुझे अपना आधा राज्य भेंट करता हूँ। तू इसे स्वीकार कर। इसके उत्तरमें पुण्यात्मा सुदर्शनने निस्पृहताके साथ कहा कि राजन् , चाहे कोई मेरा शत्रु हो या मित्र, मेरी तो उन सबके साथ पहलेहीसे क्षमा है-मेरा किसीपर क्रोध नहीं। मिर्फ क्रोध है तो मेरे आत्म-शत्रु क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वष, मोह और इन्द्रियों पर; और उन्हें नष्ट करनेका मैं सदा प्रयत्न भी करता रहता हूँ / यही कारण है कि मैंने जिनभगवान्का उपदेश किया और सुखोंका समुद्र उत्तमक्षमा, उत्तममार्दव, उत्तमआर्जव आदि दसलक्षगरूप धर्म ग्रहण कर रक्खा है। और इस समय जो मुझपर उपद्रव हुए-मुझे कष्ट दिया गया, यह सब तो मेर पूर्व पापकर्मोका उदय है / अथवा यों समझिए कि यह भी मेर महान् पुण्यका उदय था, जो मेरे ब्रह्मचर्य-व्रतकी परीक्षा होगई। राजन् , मेरा तो विश्वास है कि दुःख या सुख, गुण या दुर्गुण, दूषण या भूषण, आदि जितनी बातें हैं वे सब पूर्व कमाये कर्मोंसे होती हैं-उन्हें छोड़कर इन बातोंको कोई नहीं कर सकता। तब मुझपर जो उपद्रव हुए, उसमें तुम तो निमित्त मात्र हो-इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं। अथवा तुम तो मेरे उपकारक हुए। क्योंकि जब मैं मसान भूमिसे लाया गया, तबहीसे मैंने नियम कर लिया था कि यदि इस घोर उपसर्गमें वध-बन्धन आदिसे मेरी मौत हो जाय तब तो