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________________ 48 ] सुदर्शन-चरित। यह सुनकर दुरभिमानिनी देवदत्ता बोली-तूने कहा यह सब ठीक ही है। क्योंकि वेश्याको छोड़कर और खिया उसके मनको किसी प्रकार बिचलित नहीं कर सकतीं। वह कपिला ब्राह्मणी, जो भीख माँग माँगकर पेट भरती है, लोगोंके मनको मोहनेवाले हाव-भावविलासोंको क्या जाने ? और वह सदा रनवासमें रहनेवाली बेचारी रानी अभयमती स्त्रियोंके दुर्धर चरित्रों, पुरुषोंके लक्षणों और दासीपनके कामोंको क्या समझे ? इस प्रकार उन सबकी हँसी उड़ाकर मूर्खिणी देवदत्ताने उस धायके सामने प्रतिज्ञा की-कि देख, तुम लोगोंने भी उस धीर और नर-श्रेष्ठको चाहा और उसे प्राप्त करनेका यत्न किया, पर वह तुम्हारा चाहना और वह यत्न करना नाम मात्रका था। उसे वास्तवमें मैं चाहती हूँ-मेरा उसपर सच्चा प्रेम है और इसीलिए देख, जिस तरह होगा मैं अपनी सब शक्तियोंको लगाकर उसका ब्रह्मचर्य नष्ट करूंगी-और अवश्य नष्ट करूँगी। इधर राजा सुदर्शनके सामने अपनी निन्दा और उसकी प्रशंसा करने लगा-हे महापुरुष, तू बड़ा ही धीरजवान् है-पर्वतकी धीरताको भी तूने जीत लिया। तू बड़ा शीलवान् धर्मात्मा है। संसारका पूज्य महात्मा है। हे वैश्य-कुल-भूषण, मुझ अविवेकी दुरास्माने स्त्रियोंका चरित न जानकर तेरा बड़ा भारी अपराध किया / मैं तुझसे प्रार्थना करता हूँ कि अपनी दिव्य क्षमा मुझे दानकर मेरे सब अपराधोंको तू क्षमा कर। हे संसारमें श्रेष्ठता पाये हुए, हे देवों द्वारा पूजे जानेवाले और हे सच्चे सुशील, मुझे विश्वास है कि तू
SR No.022755
Book TitleSudarshan Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kashliwal
PublisherHindi Jain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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