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________________ सुदर्शनका धर्म-श्रवण । [ ४५ लड़ने लगा। अब भी उसे सुरक्षित देखकर राजाको बड़ी वीरश्री चढ़ी। उसने अपना खड्ग निकाल कर इस जोरसे यक्षके सिरपर मारा कि उसका सिर मुट्टेसा दो टुकड़े होकर अलग जा गिरा। यक्षने तब उसी समय विक्रियासे अपने दो रूप बना लिये। राजाने उन दोनोंको भी काट दिया। यक्षने तब चार रूप बना लिये। इस प्रकार राजा ज्यों ज्यों उन बहु संख्यक यक्षोंको काटता जाता था त्यों त्यों वह अपनी दूनी दूनी संख्या बढ़ाता जाता था। फल यह हुआ कि थोड़ी देरमें सारा युद्धस्थल केवल यक्षों ही यक्षोंसे व्याप्त हो गया। जिधर आँख उठाकर देखो उधर यक्ष ही यक्ष देख पड़ते थे। अब तो राजा घबराया। भयसे वह कापने लगा। आखिर उससे वह भयंकर दृश्य न देखा गया। सो वह युद्धस्थलसे भाग खड़ा हुआ। उसे भागता देखकर वह यक्ष भी उसके पीछे पीछे भागा और राजासे बोला-आः दुरात्मन्, देखता हूँ, अब तू भागकर कहाँ जाता है ? जहाँ तू जायगा वहाँ मैं तुझे मार डालूँगा । हाँ एक उपाय तेरी रक्षाका है और वह यह कि यदि तू महात्मा सुदर्शनकी शरण जाय तो मैं तुझे जीव-दान दे सकता हूँ। इसके सिवा और कोई उपाय तेरे जीनेका नहीं है । भयके मारे मर रहा राजा तब लाचार होकर सुदर्शनकी शरणमें पहुँचा और सुदर्शनसे गिड़गिड़ा कर प्रार्थना करने लगा कि महापुरुष, मुझे बचाइए, मेरी रक्षा किजिए । मैं अपनी रक्षाके लिए आपकी शरणमें आया हूँ। यह कहकर राजा सुदर्शनके पाँवोंमें गिर पड़ा । सुदर्शनने तब हाथ उठाकर यक्षको रोका और उससे पूछा-भाई तु कौन है
SR No.022755
Book TitleSudarshan Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kashliwal
PublisherHindi Jain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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