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________________ सुदर्शनकी युवावस्था । [ २३ सुखका समुद्र है। यही जानकर सुदर्शन सेठ अपने मनोरथकी सिद्धिके लिए बड़े यत्नसे धर्म-साधन करता था। इस प्रकार वह स्वयं हृदयमें धर्मका चिंतन करता था और लोगोंको उसका उपदेश करता था । उसके शुद्ध आचार-विचारोंको देखकर यह जान पड़ता मानों वह धर्ममय हो गया है। धर्मने देह धारण कर लिया है। देखिए, सुदर्शन जो इतना सुख भोग रहा है, उसका राजाप्रनामें मान है, वह गुणोंका समुद्र कहा जाता है, यह सब उसने जो धर्म-साधन कर पुण्य कमाया है उसका फल है । तब जो बुद्धिमान् हैं और सुखकी चाह करते हैं उन्हें भी चाहिए कि वे मनवचन-कायकी पवित्रताके साथ एक धर्महीकी आराधना करें। मेरी भी यह पवित्र भावना है कि धर्म गुणोंका खजाना है, इसलिए मैं उसका सदा आराधन करता रहूँ । धर्मका मुझे आश्रय प्राप्त हो। धर्म द्वारा मैं मोक्षमार्गका आचरण करता रहूँ। मेरी सब क्रियायें धर्मके लिए हों । मेरा दृढ़ विश्वास है-धर्मको छोड़कर मेरा कोई . हितू नहीं। मुझे वह शक्ति प्राप्त हो जिससे मैं धर्मके कारणोंका पालन करता रहूँ। धर्ममें मेरा चित्त दृढ़ हो और हे धर्म, मेरी तुझसे प्रार्थना है कि तू मेरे हृदयमें विराजमान हो। धर्म पापरूपी शत्रुका नाश करनेवाला और मनचाहे सुखोंका देनेवाला है। जो स्वर्ग चाहता है उसे स्वर्ग, जो चक्रवर्ती बनना चाहता है उसे चक्रवर्ती-पद, जिसे इन्द्र होनेकी चाह है उसे इन्द्र-पद, जो पुत्र चाहता है उसे पुत्र, जो धन-दौलत चाहता है उसे धन-दौलत, जो सुख चाहता है उसे सुख और जो मोक्ष
SR No.022755
Book TitleSudarshan Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kashliwal
PublisherHindi Jain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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