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________________ धन्य - चरित्र / 382 सम्पूर्ण नगर में उसके समान कोई नहीं है। नगर में यही मुख्य है । " यह सुनकर प्रसन्न होते हुए मुख्य मंत्री को भेजकर बहुमानपूर्वक उसे बुलाया । धर्मदत्त भी अद्भुत वस्तुएँ उपहार के रूप में लेकर मन्त्री के साथ रथ पर आरूढ़ होकर सभास्थल पर पहुँचा। राजा को नमन करके उपहार उनके चरणों में भेंट किये। राजा ने भी बहुत ही सम्मान देकर अपने बिल्कुल पास में ही उसे बिठाया । कुशल-वार्ता पूछी। फिर राजा ने कहा- ' - "तुमने मुझे जो स्वर्ण पुरुष प्रदान किया, उससे पृथ्वी के समस्त लोगों को मैंने ऋणमुक्त कर दिया। मेरा यश चारों ओर फैल गया। यह सब तुम्हारे द्वारा ही किया हुआ उपकार है ।" धर्मदत्त ने कहा - "स्वामी! आप क्यों मेरी बड़ाई कर रहे हैं? स्वर्ण-पु - पुरुष तो आपने ही खोजा था। अगर वह मेरे भाग्य में लिखा होता, तो क्षणान्तर में ही मेरे हाथ से कैसे निकल जाता? बल्कि आपने तो मेरे वियोग के दुःख को भी दूर किया। स्वर्ण देकर मेरी दरिद्रता का भी निवारण किया । मनुष्यों की पंक्ति में आपने ही मुझे रखा है ।" इस प्रकार दोनों ने ही सज्जन - प्रकृति होने के कारण एक दूसरे के गुणों का ही वर्णन किया। फिर राजा ने धर्मदत्त को नगर-श्रेष्ठी का पद दिया । पट्टबन्धपूर्वक अत्यधिक वस्त्राभूषण आदि देकर राजकीय सामन्तों तथा सभी महेभ्यों के साथ महान विभूति व गीत-नृत्यादि तथा बन्दी जनों द्वारा बिरुदावलि गाये जाते हुए महा-महोत्सव के साथ घर भेजा। धर्मदत्त ने भी यथायोग्य ताम्बूल वस्त्रादि देकर उन सभी को विदा किया । फिर वह प्रतिदिन राजसभा में जाने लगा। राजा भी दिन - 2 उसकी मानलगा। - वृद्धि करने एक बार राजा ने पूछा - "तुम्हारे पास कितना धन है?" धर्मदत्त ने कहा—–“स्वामी! आपकी कृपा से सोलह करोड़ धन है, पर एक बहुत ही आश्चर्य की बात सुनिए - पूर्व में वन के मध्य आपके आदेश से मैंने स्वर्ण - पुरुष से बहुत सारा धन यथेच्छापूर्वक ग्रहण किया। फिर आप से अलग होकर उस स्वर्ण से व्यवसाय करते हुए मैंने सोलह करोड़ का धन उपार्जित किया। फिर मैं यहाँ आ गया। पुनः भी यहाँ जल-थल आदि पथों से व्यापार किया, पर वर्ष के अन्त में लाभ निकालने के लिए लेखा-जोखा किया तो १६ करोड़ ही देखा । न अधिक, न कम । कम ज्यादा खर्च करने पर भी मेरे पास सोलह करोड़ ही बचता है । उसे बढ़ाने के लिए निपुणतापूर्वक अनेक प्रकार से व्यापार किया, सभी व्यापारियों ने मेरे व्यापार की बहुलता देखकर अपने-अपने मन में विचार किया कि इस वर्ष में धर्मदत्त के धन में चार-पाँच करोड़ की वृद्धि होगी, पर मैंने जब हिसाब किया, तो धन उतना का उतना ही रहा । कुछ भी ज्यादा नहीं। फिर अत्यधिक संकुचित व कृपण रीति से व्यापार करके अत्यधिक खर्च किया, तो भी धन उतना का उतना ही
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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