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धन्य-चरित्र/383 रहा । अतः मैं अत्यधिक परिश्रम नहीं करते हुए यथोयोग्य रीति से व्यवसाय करता हूँ, अधिक नहीं। मुझे यह देखकर अत्यधिक आश्चर्य हो रहा है, पर अतिशय ज्ञानी के बिना इसका हार्द बताने में कौन सक्षम है?"
इस प्रकार राजा के आगे अति सरलतापूर्वक अपनी बात बता ही रहा था, तभी प्रतिहारी के साथ वनपाल ने आकर प्रणामपूर्वक निवेदन किया-"महाराज! आज आपके वसन्त विलास नामक उद्यान में अनेक मुनियों से परिवृत्त श्रीमद् धनसागर सूरि पधारे हैं। अपने अतिशय ज्ञान के द्वारा भव्यजनों का उपकार करते हुए विचरण कर रहे हैं।
उसका कथन सुनकर राजा व धर्मदत्त श्रेष्ठी-दोनों ही परिषदा सहित गुरु को वन्दन करने के लिए गये। जैसे ही गुरु दृष्टिपथ पर आये, पाँच अभिगमपूर्वक राजा व धर्मदत्त ने श्री गुरु को वन्दन किया। श्री गुरु ने भी धर्मोपदेश दिया। यथा--
दुल्लहं माणुस्सं जम्मं लभ्रूणं रोहणं व रोरेण। रयणं व धम्मरयणं बुद्धिमया हंदि चित्तव्वं ।।1।। जिण गुरु भत्ति जत्ता, पभावणा सत्तखित्त धणवावो।
सम्मत्तं छयावस्सय धम्मो सय लद्ध सुहहेऊ।।2।।
बुद्धिमानों द्वारा दुर्लभ मनुष्य जन्म को प्राप्त करके नारक के द्वारा स्वर्णाचल गिरि को प्राप्त करने के तुल्य धर्मरत्न को रत्न की तरह ग्रहण करना चाहिए। जिनेश्वर व गुरु की भक्ति, यात्रा, प्रभावना सात क्षेत्रों में धन का वपन आदि करना चाहिए। सम्यक्त्व, छ: आवश्यकादि रूप धर्म सदा सुख के हेतु को प्राप्त करानेवाला
है।
इस प्रकार की सम्यग् देशना को सुनकर अवसर प्राप्त कर राजा ने पूछा-"प्रभु! धर्मदत्त ने अत्यन्त पुरुषार्थपूर्वक कष्ट सहन करके यह स्वर्ण पुरुष प्राप्त किया, पर वह स्वर्ण पुरुष निर्विघ्न मेरे घर में आ गया। यह अत्यन्त लगनपूर्वक व श्रमसाध्य व्यवसाय करता है, तो भी सोलह करोड़ से ज्यादा इसके पास ठहरता नहीं। इसका क्या कारण है? कृपा करके हमें बतायें।"
राजा के द्वारा किये हुए प्रश्नों को सुनकर जैसे ही गुरुवर बोलने को उद्यत हुए, तभी एक बन्दरी ने वृक्ष से उतरकर गुरु को वन्दना की और बार-बार चारों ओर घूमने व नृत्य करने लगी। यह देखकर राजा ने कहा-"प्रभो! पूर्व में जो प्रश्न किये, उनके उत्तर आप बाद में दें, पर पहले यह बतायें कि यह मर्कटी नृत्य व वन्दन क्यों कर रही है?"
गुरुवर ने कहा-“राजन! जगत में मोहनीय कर्म की गति विचित्र है। अनिर्वचनीय है। भवितव्यता है। यह नगर में स्थित धर्मदत्त मेरा जामाता है। मैं इसका संसारपक्षीय श्वसुर हूँ। यह मर्कटी अपने पूर्व भव में मेरी पत्नी थी। धर्मदत्त की जो