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________________ धन्य-चरित्र/381 इस प्रकार प्रत्येक घर व प्रत्येक मुख पर उसका यश गाया जाने लगा। दूसरे दिन स्वजनों, मित्रों, ज्ञातिजनों को निमन्त्रित करके, अत्यन्त स्वादिष्ट व सुखपूर्वक खायी जानेवाली रसोई जिमाकर, पुष्प-ताम्बूल आदि देकर उनका यथा-योग्य वस्त्र-आभरणों के द्वारा सत्कार किया। __पूर्व पत्नी के आगे जहाज पर चढ़ने से लेकर घर आने तक की संपूर्ण घटना कही। वह भी आँखों में आँसू भरकर बोली-“स्वामी! पूर्वजों के धर्म-प्रसाद से आपके दर्शन हो गये। मैंने ये दिन महान दुःख में व्यतीत किये। उस दुःख को या तो मेरा मन जानता है या फिर जिनेश्वर जानते हैं। ऐसा दुःख किसी शत्रु को भी न मिले। पर आपके दर्शन होते ही मेरे सारे दुःखों का नाश हो गया। अब तो मैं भाग्यवतियों की भी शिरोमणि हूँ।" सभी स्वजनों को भी हर्ष व संतोष प्राप्त हुआ। तब से धर्मदत्त भी पिता की तरह व्यापार करने में प्रवृत्त हो गया। __एक बार यशोधवल राजा ने दर्पण में देखते हुए श्वेत बाल देखा, तो अद्भुत वैराग्य की उत्कटता से चन्द्रधवल को राज्य देकर दीक्षा ले ली। फिर दुस्तर तप करके, घातीकर्मों का क्षय करके, केवल ज्ञान प्राप्त करके पृथ्वी पर अनेक भव्यों को प्रति-बोधित करके अन्त में एक मास की संलेखन करके अघाती कर्मों को भी योग-निरोधपूर्वक खपा करके महा-आनन्द रूपी मोक्ष पद को प्राप्त किया। उधर चन्द्रधवल भी राज्य प्राप्त होने पर न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करने लगा। उसके द्वारा युक्ति से पूजे जाते हुए स्वर्ण-पुरुष के हाथ-पाँव का छेदन करने पर भी वे प्रतिदिन वापस उत्पन्न हो जाते थे। इस प्रकार प्रतिदिन बढ़ते हुए स्वर्ण से उसका कोश अक्षय हो गया। दरिद्रता से पीड़ित लोगों को देखकर उत्पन्न हुई करूणा वाले चन्द्रधवल ने स्वर्ण-पुरुष से उत्पन्न स्वर्ण के द्वारा विश्व की दरिद्रता को दूर करके समग्र पृथ्वी को ऋण-रहित करके अपना चन्द्र संवत्सर प्रवर्तित किया। एक बार पिछली रात्रि के समय जागृत होकर राज्य–चिन्ता करते हुए राजा को धर्मदत्त का स्मरण हो आया-"अहो! मैंने प्रमादवश राज्य में ही मग्न रहते हुए परम उपकारी, कृतज्ञों के शिरोमणि परम मित्र धर्मदत्त को कभी याद ही नहीं किया। प्रभात होते ही उसकी खोज-खबर मँगवाकर सभा में बुलाकर अति आदर-पूर्वक सम्मान देना चाहिए।" __इस प्रकार विचार करते हुए प्रभात हो गया। तब राजा ने शय्या से उठकर, प्राभातिक कृत्य करके आस्थान को अलंकृत करके नगर-वासियों से पूछा-"श्रीपति श्रेष्ठी का पुत्र धर्मदत्त यहीं है या देशान्तर गया हुआ हैं?" उन्होंने कहा-"स्वामी! उसने तो देशान्तर में जाकर अत्यधिक धन का अर्जन करके घर आकर पिता के नाम को बहुत ही गौरवान्वित किया है। अभी तो
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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