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तीन पुत्र हुए । पति की मृत्यु के बाद वह परिव्राजिका बनी वह मैं । छोटी बहन अग्निशर्मा को दी पर वह छ:महिने में विधवा हुई । एकबार हरिदत्त ने उसके पास याचना की । परंतु व्रतखंडन के भय से उसने नहीं स्वीकारा । वह मेरे पास आयी । मुझे कहा मुझे परिव्राजका कर । | "मैंने कहा 'अपुत्र व्रत योग्य नहीं होते । मेरे द्वारा मना करने पर भी स्वर्ग की इच्छावाली वह परिव्राजिका हुई फिर वह तप करके मरकर यह कुत्ती हुई है । मुझे देखकर पूर्वभव यादकर रो रही है। भोगान्तराय कर्म इसने बांध लिया, उसका फल यह भोग रही है । अतः मेरा तुझे भी कहना है कि कोई तेरे पास प्रार्थना करे तो उसका भंग न करना । कपटी मायावीनी ने नंदिनी के चित्त को चंचल कर दिया । वह सोचने लगी । दुष्कर ब्रह्मव्रत पालन का यह फल हो तो भोगों को क्यों न भोगे । ऐसा चिंतन चलता था । सावित्री ने एकबार पुनः प्रयत्न किया । तब नंदिनी ने 'भाईयों से मैं डरती हूँ ।' ऐसा कहा । तब उसने कहा 'तीर्थयात्रा के छल से घर से आभूषण आदि ले जा । मेरा पुत्र भी वहाँ आ जायगा। इसमें कोई दोष नहीं रहेगा।' नंदिनी ने यह स्वीकार किया। सावित्री ने अपने पुत्र को सांकेतिक स्थान पर भेज दिया । |बहू को पिता के घर भेज दी। सावित्री नंदिनी की राह देखती थी। तभी सुव्रता नाम की साध्वीजी वहाँ पधारी । उनके पास ही उसने धर्म पाया था। वह उनके पास गयी। और एकांत में परिव्राजिका की बात कही। तब साध्वीजी ने उसे समझाया । 'अगर पत्र से स्वर्ग होता हो, तो शूकरी, कुत्ती, कुकुट्टी, गद्धी आदि का स्वर्ग प्रथम होगा । उसकी बात पर विश्वास मत करना । वीतराग वचन पर शंका मत कर । दुःशील से इसभव एवं परभव में दुःख ही दुःख भोगना पड़ता है। इसलिए तू उस अज्ञानी की बातें मस्तिष्क से निकाल दे। दुःशील | सेवन से स्त्री तिर्यंच, गद्धी, घोड़ी शूकरी, बकरी आदि के भवों में | एवं कदाच नरभव मिल जाय तो वहाँ वन्ध्यापन, बाल विधवा, दुगंधा,