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| पर रखता था । श्रावक कुटुम्ब उसकी भक्ति करता था । कुमार भी उसे बहुत दान देता था । याचकों को भी प्रचुर दान देता था । इच्छापूर्वक विलास करने से लोगोंने उसका नाम 'श्री विलास' रखा ।"
वहाँ रत्नरथ राजा राज्य करता था । वह सौन्दर्य, ऐश्वर्य, गांभीर्य, शौर्य आदि गुणों से युक्त था। उस नगरमें रतिमाला गणिका | थी । वह चौसठ कलाओं में प्रवीण थी । राजा उस पर मोहित होकर उसे अंत:पुर में ले गया। गणिका ने एक पुत्री को जन्म दिया। जन्मोत्सव मनाकर उसका नाम 'रतिसुंदरी' दिया । बाल्यवय पूर्णकर अध्ययनकर वह भी चौसठ कलाओं में प्रवीण हुई ।
पूर्वभव के संस्कार से जैन अध्यापकों के पास से सम्यक् प्रकार से षड्दर्शन की ज्ञाता हुई। जैनधर्म पर अधिक श्रद्धावाली हुई। वह पंच परमेष्ठी की भक्ति करती थी। उसको अत्यन्त रूप गुण संपन्न जानकर उसके लिए राजकुमार की खोज़ करवायी। परंतु उसके योग्य कोई राजकुमार न मिला ।
रतिमाला पर अन्य रानियों की ईर्ष्या देखकर राजा ने उसे राजमहल के पास में ही एक महल में निवास करवाया । रतिसुंदरी भी माता के साथ रही । उस राज्य की कुलदेवी चंदेश्वरी का चैत्य | उद्यान में था। लोक उसकी पूजा करते थे । एक बार उसके चैत्य में स्वाध्याय ध्यान में लीन कोई अप्रमत्त महामुनि चार मास उपवास
करके रहे । चंदेश्वरी उन महामुनि के गुणों से प्रमुदित हुई । उसके | पूर्वभव के संस्कार जागृत होने से उसने अपना पूर्वभव देखा ।।
मैं नंदिपुर में देवशर्म ब्राह्मण की स्वरूपवान नन्दिनी नाम की पुत्री थी । सुशर्म को दी गयी थी। एक वर्ष में उसकी मृत्यु हो गयी । दुःखी नन्दिनी पिता के घर आयी । एकबार उसके घर के पास धर्मगुप्त नाम के गुरु ठहरे । ब्राह्मण प्रतिबोध पाकर श्रावक हुआ । नंदिनी भी सम्यक्त्व सहित अणुव्रत धारिणी श्राविका हुई । वह षडावश्यक